श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
39. ग्रहण-यात्रा
'बहिन! हम पर ही क्या कम विपत्ति आयी।' 'आप सबके अहोभाग्य!' महाराज उग्रसेन से, वसुदेव जी से, अक्रूर से, यादवों में जिससे भी कोई ऋषि-मुनि, तपस्वी अथवा सम्मानित धर्मात्मा मिलते थे- एक ही बात कहते थे- 'जिनके एक क्षण का दर्शन भी बड़े-बड़े योगियों को दुर्लभ है, वे श्रीकृष्णचन्द्र आपके स्वजन बनकर आपके मध्य है। आपको वे अपना मानते हैं। आपको नित्य-नित्य उनका दर्शन, मिलन तथा स्नेह प्राप्त है।' कुछ कुढ़ने वाले भी होंगे; किन्तु वे एकाकी पड़ गये थे और जब इतने बड़े जनसमूह में किसी की स्तुति चल रही हो, उसके विरुद्ध कुछ कहकर लोकमानस की घृणा, अपमान का पात्र कौन बने। श्रीकृष्ण- सर्वत्र श्रीकृष्ण की चर्चा। जो तरुछाया से भी दूर दिगम्बर रहने वाले अवधूत हैं, तपस्वी हैं, ऋषि या मुनि हैं वे तो श्रीकृष्ण के सदा के स्वजन- स्तुतिकर्ता हैं ही। ब्राह्मणों का उन ब्रह्मण्यदेव के अतिरिक्त दूसरा कौन स्तोतव्य मिलता। स्तुति-प्रशंसा तो उन श्रीद्वारिकाधीश की शत्रु नरेशों के शिविर में- उनके अन्तःपुर तक में चल रही थी। श्रीकृष्ण का सौन्दर्य त्रिभुवन में दुर्लभ है तो उनका शील, उनका विनय, उनकी उदारता का भी दूसरा कोई उदाहरण कहीं नहीं। श्रीकृष्ण के गुणगान से पवित्र हो रहा था जनमानस। जो भी द्वारिका के शिविर में गया- ऐसा कौन भाग्यहीन होगा जो उन जनार्दन के दर्शनार्थ न जाय- वह उस शिविर से बिना सत्कार-उपहार पाये निकल आवे, ऐसा संभव नहीं था। सम्पूर्ण मेले पर, आगत समस्त लोकमानस पर श्रीकृष्ण छाये थे। मन में उनका चिन्तन, वाणी से उनका स्तवन, पास में उनके उपहार और हृदय में उनके श्रीचरणों में पुनः प्रणिपात करने की उत्कण्ठा- प्रायः एक-सी दशा थी सब यात्रियों की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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