श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. सखा सुदामा
पत्नी ने कभी सोचा भी नहीं कि उसे कभी शरीर ढकने को नवीन वस्त्र मिलेगा। अपने केश वह अँगुलियों से सुलक्षा लेती थी। घृत की बात छोड़िये, तेल के दर्शन दम्पत्ति ने नहीं किया विवाह के पश्चात। कोई असन्तोष कोई कामना नहीं सुदामा के मन में। वे परम सन्तुष्ट; किन्तु पत्नी से उस दिन नहीं सहा जाता था जब उसके स्वामी जल पीकर कह देते थे- 'आज श्रीहरि ने उपवास का सुअवसर अनुग्रह किया।' 'स्वयं कंकाल-प्रायः ब्राह्मणी। सब कार्य उसी को करना था। दूर भिक्षा लेने जा नहीं सकती थी और एक घर में सप्ताह में एक दिन से अधिक भिक्षा लेने न जाया जाय, वह पति की आज्ञा थी। वृक्षों में सब समय फल नहीं रहते। सबसे कठिन समय पावस का प्रारम्भ-पत्र शाक भी तब वर्जित हैं और ग्रीष्म में वे मिलते ही नहीं। पत्नी को भले उपवास करना पड़े, उसके अत्यन्त दुर्बल स्वामी के मुख में एक ग्रास बिना लवण का शाक देने की भी वह व्यवस्था न कर सके, इससे बड़ा दुःख क्या हो सकता था उसके लिए और सब वह रो पड़ती थी। तब आग्रह करने लगती थी। 'आप स्वयं कहते हैं कि वे श्रीद्वारिकाधीश आपके मित्र हैं और परमोदार हैं। वे स्मरण करने वाले को अपने आपको भी दे देते हैं। वे साक्षात रमाकान्त हैं। तब आप एक बार द्वारिका हो आइये। आपको अर्थ और भोग बहुत अभीष्ट नहीं है, किन्तु आप गृहस्थ हैं, कुछ तो आपको चाहिए। आपको वहाँ कुछ कहना नहीं है। वे सर्वज्ञ, सकलसेश्वर क्या नहीं देखेंगे कि आप सकुटुम्ब कितनी दरिद्र अवस्था में हैं। आपको वे बहुत-सा धन देंगे। आप उनके पास द्वारिका जाइये।' पत्नी बार-बार कहती है- यही एक ही रट है उसकी कि द्वारिका जाइये। जो साध्वी सेवा की मूर्ति है, जिसने कोई सुख-सुविधा नहीं पायी और न माँगा अपने लिए कुछ, उसके अनुरोध को, उसके रुदन को कोई कब तक अनसुना-अनदेखा करता रहेगा? 'वे बहुत-सा धन देंगे।' यही बात सुदामा को विरक्त कर देती है। धन का क्या करना है उन्हें। अर्थ तो अनर्थों का मूल है। ब्राह्मण अर्थ की इच्छा क्यों करें। श्रीकृष्ण से कुछ चाहना-उनसे चाहना क्या। सुदामा को तो लगता है कि उन्हें दिया जाना चाहिए। उन्हें प्रीति दी जानी चाहिए। उनसे लेने जाने की बात ही उनके चित्त में नहीं आती। गुरुकुल में भी तो सुदामा सदा इसी प्रयत्न में रहे थे कि कोई सुस्वादु फल, कोई सुरंग पुष्प अपने इस सखा को दे सकें। यह दूसरी बात है कि श्रीकृष्ण ने दिया ही दिया। उन्हें देने का अवसर ही नहीं आया और अब भी उनसे लेने जाया जाय? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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