श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. षट्पुर-नाश
'अपने शत्रु यदुवंशियों से हमारा युद्ध होने वाला है।' निकुम्भ बोला- 'आप हमारी सहायता करें। उन्हें हमारे पुरों से बाहर रोकें। पांडवों को श्रीकृष्णचन्द्र ने बुला लिया और यज्ञ-रक्षा का भार दे दिया उन्हें। प्रद्युम्न, इन्द्रपुत्र जयन्त तथा ब्राह्मण श्रेष्ठ प्रवर गगन से दानव न भागें, इस पर नियुक्त किये गये। मायायुद्ध का उत्तर उसी प्रकार दिया प्रद्युम्न ने। उन्होंने दानवों के समर्थक सब राजाओं को उठाकर एक साथ फेंका गुफा में और भगवान शंकर से प्राप्त दिव्य पाश से उनको वहाँ बाँध दिया। अनिरुद्ध को वहाँ गुहा-द्वार पर नियुक्त कर दिया। निकुम्भ अर्जुन का भी अपहरण करना चाहता था। पार्थ के दिव्यास्त्र उसके शरीर का स्पर्श करके गिरते गये। तभी श्रीकृष्णचन्द्र पहुँच गये। विस्मित अर्जुन को उन्होंने बतलाया- 'इसने उत्तर-कुरु में उग्र तप करके भगवान पशुपति से वरदान पाया है। मेरे चक्र के अतिरिक्त और किसी भी दिव्यास्त्र का इस पर प्रभाव नहीं पड़ेगा।' श्रीबलराम हल से खींचकर मुशल से दानवों की कपाल क्रिया कर रहे थे। गगन में भागने वाले प्रद्युम्न, प्रवर अथवा जयन्त के दिव्यास्त्रों से दग्ध हो जाते थे। सात्यकि का धनुष मृत्यु-वर्षा कर रहा था। दानवों का सम्पूर्ण समूह कुछ ही देर में समाप्त हो गया। श्रीसंकर्षण तथा प्रद्युम्न ने निकुम्भ के द्वारा बन्दी किये गये यादव वीरों को षट्पुर की गुफा में से मुक्त किया। बहुत लज्जित होना पड़ा मगधराज जरासन्ध तथा उसके साथियों को। प्रद्युम्न की प्रार्थना करके, उनसे क्षमा माँगने पर ही उन्हें गुफा के बन्दीगृह से मुक्ति मिली। ब्रह्मदत्त का यज्ञ सानन्द सविधि पूर्ण हुआ। उन्होंने अपनी शेष कन्याएँ भी यादव वीरों को विवाह दीं। दैत्य-दानव कन्याएँ भी जो दानवों ने राजाओं को भेंट की थीं, रत्नों के साथ यादव शूरों को ही प्राप्त हुई। पांडवों को सहस्रों रथ दानवों के दिव्य अश्वों के साथ मिले। ब्रह्मदत्त को श्रीकृष्णचन्द्र ने षट्पुर का राज्य दे दिया। अवभृथ स्नान करके माताओं तथा पिता को साथ लेकर बलराम श्रीकृष्ण वहाँ से सेना-सहायकों के साथ द्वारिका लौट आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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