श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. षट्पुर-नाश
दानवों की बात सुनते ही वसुदेव समझ गये कि ये उपद्रव करने ही आये हैं। वे कृष्ण बलराम का ध्यान करने लगे। द्वारिका में श्रीकृष्णचन्द्र ने प्रद्युम्न से कहा- 'पिता मेरा स्मरण कर रहे हैं। तुम शीघ्र पहुँचो। मायावी दानवों के साथ माया-प्रयोग करने में हिचको मत। मैं शीघ्र आर्य संकर्षण तथा सात्यकि के साथ सेना लेकर आ रहा हूँ।' प्रद्युम्न शैशव में शम्बरासुर के सदन में ही मायावती के द्वारा सब मायाओं के मर्मज्ञ बना दिये गये थे। उन्होंने आकाश से यात्रा की और ब्रह्मदत्त की पुत्रियों को वहाँ से हटा दिया। वहाँ माया-निर्मित वैसी ही कन्याएँ बैठा दीं। अभय प्रथम गुण है दैवी-सम्पत्ति का। जो भगवदाश्रित है, उसे साक्षात काल भी भयभीत नहीं कर पाता। ब्रह्मदत्त ने दानवों को उत्तर दिया- 'श्रुति में दैत्य-दानवों के लिए यज्ञ भाग देने का विधान नहीं है। आप सब सोमपान के अधिकारी हैं या नहीं, यह इन महर्षियों से पूछ लें। अपनी कन्याओं का मानसिक दान मैं जिन्हें कर चुका हूँ, उन्हीं को दी जायँगी। आपको रत्न मिल सकते हैं यदि आप सब शान्ति से व्यवहार करें। समस्त भूमि भगवान श्रीहरि की है। मैं उन भगवान वासुदेव का आश्रित हूँ। मुझे भयभीत करने का प्रयास आप सबके लिए ही अहितकर होगा।' दानव तो उपद्रव करने का संकल्प करके ही आये थे। वे क्रोध में भरकर यज्ञमण्डप गिराने और सामग्री लूटने लगे; किन्तु तभी बलराम-श्रीकृष्ण ससैन्य आ पहुँचे। श्रीकृष्ण ने सात्यकि को सेना के साथ यज्ञ-रक्षार्थ भेज दिया। दानव माया कन्याओं को लेकर भागे और अपने षट्पुर में प्रविष्ट हो गये। 'आप निर्भय यज्ञ-सम्पन्न करें।' श्रीकृष्ण ने पहुँचते ही ब्रह्मदत्त को प्रणाम करके आश्वासन दे दिया। 'आप चक्रपाणि आ गये, अब भय किसका।' ब्रह्मदत्त ने अभ्यर्थना की- 'यह यज्ञ-पुरुष की अर्चा का मात्र है। आप सर्वात्मा सन्तुष्ट है तो यज्ञ सार्थक हो गया।' 'श्रीकृष्ण आ गये हैं, यह मैंने देख लिया।' निकुम्भ बोला- 'वे यादवों को लेकर आक्रमण तो करेंगे हीं; किन्तु बाहर की अपेक्षा इन पुरों में रहकर युद्ध करना अधिक सुरक्षित है। 'तुम सहायक क्यों नहीं बनाते। इतने नरेश आये हैं, उन्हें सत्कृत करके सहायता बना लो तो वे यादवों को बाहर युद्ध करके रोकेंगे।' देवर्षि ने सुझाव दिया और विदा हो गये। निकुम्भ श्रीकृष्ण तथा प्रद्युम्न से भयभीत था। उसने दानवों को समझाया। दानवों ने अपनी पाँच सौ कन्याएँ और बहुत से रत्न लिये। षट्पुर के समीप भूमि के ऊपर राजाओं के शिविर थे, दानव मगधराज जरासन्ध के शिविर में पहुँचे और बोले- 'यह हमारा उपहार आप सब नरेश स्वीकार करके हमें उपकृत करें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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