श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
32. शक्र-संग्राम
शक्र को सबसे पहिले अपने वाहन की सुधि लेनी थी। वे पर्वत पर उतरे तो जयन्त और प्रवर भी उतर गये। दोनों के शरीर बाणों से जर्जर हो चुके थे। दोनों को ही यह अवसर अमूल्य लगा तनिक विश्राम करने का। 'जो युद्ध न करता हो, उस पर आघात नहीं किया जाता।' श्रीकृष्ण ने सत्यभामा को रोक दिया और धनुष उनके हाथ से ले लिया। उनका संकेत पाकर गरुड़ भी उस पर्वत पर उतरे। पर्वत का अधिकाँश भाग गरुड़ के वेग से भूमि में धँस गया। सन्ध्या हो चुकी थी। सब युद्ध-क्लान्त थे। पर्वत पर ही सबको रात्रि-विश्राम करना था। श्रीकृष्णचन्द्र ने गंगा का स्मरण किया और तत्काल पर्वत से उनकी जलधारा प्रकट हुई। वह धारा अविन्ध्या नाम से प्राणियों को पवित्र करती अब भी प्रवाहित है। स्नान करके जनार्दन ने पारिजात के पुष्प लिये, उसी से विल्वपत्र प्राप्त किये और पर्वत से एक शिवलिंगाकार पाषाण लेकर उसमें धूर्जटिका आवाहन-पूर्वक पूजन करने लगे। श्रीकृष्ण ने आवाहन किया ही था कि स्वयं शशांकशेखर प्रकट हो गये। 'विजयी भव!' सम्पूर्ण दक्षिण भुजा फैलाकर आशुतोष हँसकर बोले- 'हृषीकेश, तुम्हारे द्वारा अर्चित यह दिव्य लिंग अब विल्वोदकेश्वर हो गया। इसका अर्चन मानवों का अभीष्ट पूरा करेगा। तुम यहाँ आ गये हो तो मेरा भी एक काम करते जाओ।' 'आज्ञा प्रभु।' श्रीकृष्णचन्द्र ने अंजलि बाँध ली। उठकर खड़े हो गये। 'इस पर्वत के नीचे त्रिपुर-ध्वंस से बचे दानवों की छः पुरियाँ हैं।' श्रीद्वारिकाधीश ने विश्वनाथ की आज्ञा स्वीकार कर ली। पर्वत को भूमि में कुछ और दबा दिया। इससे कातर होकर पर्वत देवता अधिदेवता हाथ जोड़े प्रकट हुए तो उनसे कहा- 'तुम्हारे नीचे असुरों के पुर हैं। मैंने तुम्हें दबाकर उनका द्वारा-रोध कर दिया है। तुम निर्भय हो। मैं तुम्हारे ऊपर श्रीविग्रहरूप से सदा अवस्थित रहूँगा।' दूसरे दिन प्रभात में मातलि इन्द्र का रथ लेकर आ गये। इन्द्र अपने पुत्र जयन्त तथा प्रवर को भी लेकर रथ पर बैठे। ऐरावत को उन्होंने विदा कर दिया। अमृतपायी देवताओं के शरीर स्वस्थ हो जाते हैं अपने आप। अतः इन्द्र, जयन्त तथा उनकी कृपा से प्रवर भी स्वस्थ हो चुके थे। गरुड़ारूढ़ श्रीकृष्णचन्द्र के साथ युद्ध कुछ क्षणों में ही सुरेन्द्र को भारी पड़ने लगा। प्रवर को शारंग-धन्वा ने मूर्च्छित कर दिया। जयन्त को देखकर सत्यभामा हँसी- 'यह काण!' जयन्त क्रोध में भरकर आघात करने लगा; किन्तु वह भी कुछ क्षणों में मूर्च्छित हो गया। अब क्रोधान्ध होकर देवेन्द्र ने वज्र का प्रहार किया। श्रीकृष्ण ने वामहस्त से वज्र पकड़ लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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