श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
32. शक्र-संग्राम
'प्रभो! मैं जिसके समीप रहता हूँ, उसकी इच्छानुसार पदार्थ- अस्त्र-शस्त्र और योधा भी प्रकट कर सकता हूँ; किन्तु......।' कल्पवृक्ष से बहुत विनम्र लेकिन भयभीत स्वर प्रकट हुआ- 'मुझे इन अम्बा ने अंक में स्थान दिया है। मैं अब इनका आश्रय छोड़कर- इनके पृथ्वी पर रहते स्वर्ग में सुरों के विलास का माध्यम नहीं बनना चाहता। शक्र मुझे छीनने ही आ रहे हैं। मैं आपकी शरण में हूँ। आप अनुमति दें तो इन्द्र का मानमर्दन करने वाले सहस्र-सहस्र शूर मुझसे अभी प्रकट हो जायेंगे।' 'तुम निर्भय हो' श्रीकृष्ण ने अपने कर से स्पर्श कर दिया कल्पतरु का। 'तुम्हें शान्त रहना चाहिए। मेरे धरा पर रहते तुम्हारा स्थान द्वारिका में इनका प्रांगण ही है और शक्र से युद्ध तो एक क्रीड़ा है इस समय। सहायक तो इन्द्र को अपेक्षित थे और वे उन्हें नहीं मिले।' श्रीकृष्णचन्द्र ने दक्षिण कर में कौमोदकी गदा उठा ली और वाम कर से सत्यभामा को त्रोण में-से निकालकर बाण देने लगे। इन्द्र, जयन्त, और प्रवर- तीनों ने शर-वर्षा प्रारम्भ की; किन्तु शारंग से छूटे बाण भले वे सत्यभामा कर से छूटें, कवच फोड़कर सीधे तीनों के शरीर में प्रवेश कर रहे थे। तीनों पूरी शक्ति से युद्ध में लगे थे; किन्तु उनके बाण तो सत्यभामा तक पहुँच ही नहीं पाते थे। गरुड़ अपने पंखों से बाण-वृष्टि का व्यर्थ किये दे रहे थे। प्रवर ने सबसे पहिले क्रोध में आकर दिव्यास्त्र के प्रयोग का संकल्प किया। भगवान परशुराम के साक्षात शिष्य प्रवर; किन्तु आग्नेयास्त्र का स्मरण करते ही उनके अपने शरीर में ज्वाला उठने लगी। जयन्त ने उन्हें सावधान किया- 'आप युद्ध में साथ न देने वाले किसी देवता के अस्त्र का उपयोग नहीं कर सकते। वह अस्त्र हमारे अपने ही विरुद्ध जायगा।' 'ब्रह्मास्त्र?' प्रवर ने पूछ लिया, पर जयन्त ने दृष्टि उठाकर ऊपर संकेत कर दिया। गगन में दूर भगवान हंसवाहन और कृत्तिवास दोनों दीख गये। दोनों श्रीकृष्ण की ओर हैं और दोनों ने करके संकेत से निषेध कर दिया कि उनके अस्त्रों का प्रयोग मत करो। ब्रह्मास्त्र गया, पाशुपत गया और साक्षात नारायण के विरुद्ध नारायणास्त्र का प्रयोग किया नहीं जा सकता। देवताओं के अस्त्र उलटे देवराज के विपक्ष में हो रहे हैं इस समय, और सत्यभामा के लिए यह क्रीड़ा है। वे हँस रही हैं। तीनों के शरीर उनके बाणों से विद्ध होते जा रहे हैं। कोई प्रचण्ड बाण पक्षों से बचता भी है तो उसे वे अपने पंजे या चोंच से झपट लेते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र को कौमोदकी गदा पर शर रोकना पड़े, इसका भी अवसर वे आने नहीं देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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