श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
'इस शरीर को इसके अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष स्पर्श नहीं कर सकेगा- प्राण रहते तो नहीं ही।' रुक्मिणी जी के लिए प्राण-त्याग न कोई समस्या थी, न कठिन था। कठिन तो यह था कि शरीर किसी को संकल्पित हो चुका था। वह सर्वज्ञ है, दयामय है, समर्थ है तब उसकी वस्तु नष्ट कैसे कर दी जाय? वह क्या कहेगा- क्या सोचेगा? 'उनकी तो कोई चर्चा भी नहीं करता।' रुक्मिणी जी को लगा- 'वे धरा पर अवतीर्ण हुए हैं तो धरा की मर्यादा भी तो है। उन्हें समाचार तो मिलना चाहिये।' बाल्यकाल से जिन वृद्ध कुलपुरोहित का वात्सल्य मिला था, जिन्होंने राजसभा में कहा था कि 'यह ब्रह्मा का विधान है कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी का पाणिग्रहण करेंगे।' वही एकमात्र आशा दीखी राजकुमारी को। वे अन्तःपुर में पधारे तो रोती रुक्मिणी ने उनके चरण पकड़ लिये। यह पौत्री आज लज्जाहीना बन गयी है। यह प्राण दे देगी, किन्तु.... आप इसे जीवित ही देखना चाहते हों तो द्वारिका चले जायें। उनके चरणों में इसका सन्देश पहुँचा दें। यदि उन दयाधाम समर्थ ने इसे स्वीकार नहीं किया, देह त्याग कुछ कठिन नहीं है।' वत्से! अधीर मत हो। सृष्टिकर्ता का विधान अन्यथा नहीं हुआ करता।' ब्राह्मण ने आश्वासन दिया- 'मैं स्वयं द्वारिका जाना चाहता था। तुमसे मिलने ही आया हूँ। तुम चिंता त्याग दो। उन गरुड़ासन को पहुँचने में कितने क्षण लगेंगे और उन चक्रपाणि का अवरोध करने में कौन समर्थ है। वे स्वजनपाल अपनों की उपेक्षा नहीं करते। उनके श्रीचरणों में लगी आशा निष्फल नहीं होती।' वे ब्राह्मणवर्य उसी दिन एकाकी विदर्भ से निकल पड़े थे। वे तपोधन- रथ उन्होंने स्वीकार नहीं किया और अश्वारोहण उन वृद्ध के उपयुक्त नहीं था। वे उसी दिन कुण्डिनपुर से चले गये थे, जिस दिन राजा भीष्मक का भेजा ब्राह्मण चेदिराज दमघोष के पास रुक्मिणी-विवाह का' आमन्त्रण एवं विवाह तिथि की सूचना लेकर भेजा गया था। वे विप्रवर्य दीर्घमार्ग पार कर द्वारिका पहुँचे। द्वारपाल ने उन्हें श्रीकृष्णचन्द्र के सदन में पहुँचाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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