श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. नरक-निधन
इन्द्र देवताओं को लेकर स्वर्ग चले गये। श्रीकृष्णचन्द्र सत्यभामा जी के भवन में जाकर जब उनसे विदा माँगी नरकासुर का उत्पात बतलाकर तो वो बोलीं- 'मेरी बहुत इच्छा है युद्ध देखने की। मुझे ले चलने में तुम्हें कोई असुविधा न हो तो साथ ले चलो।' 'मुझे क्या असुविधा होनी है।' श्रीकृष्ण को तो ले चलना अभीष्ट था ही। 'गरुड़ की पीठ पर चलना है। गरुड़ सुमेरु को उठा चल सकते हैं, तुम्हारी आकाश-यात्रा भी इस प्रकार हो जायगी।' गरुड़ गगन से भी सीधे पहुँच सकते थे; किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र ने यह नहीं किया। भारी कौमोदकी गदा उठायी और सम्मुख के पर्वत को चूर-चूर कर करके मार्ग बना दिया। अब शार्ङ्ग-धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ चुकी थी। बाणों की वर्षा ने आहट मात्र पर आघात करने वाले शस्त्रों को काट फेंका। चक्र - श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र तो मूर्तिमान प्रलय एवं संरक्षण दोनों हैं। उस चक्र ने जल की घूमती भित्ति को धक्का दिया तो प्रज्वलित अग्नि-भित्ति पर गिर पड़ी। अग्नि बुझ गयी और जल वाष्प बनकर उड़ा तो अपने साथ विषैली वायु को लेता उड़ गया। अधरों से पांचजन्य लगा। ध्वनि चालित जितने अस्त्र लगे थे, सब उस प्रचण्ड ध्वनि के कम्पन से झनझनाकर नष्ट हो गये। अब नन्दक खङ्ग लेकर श्रीकृष्णचन्द्र ने मुर-पाश काटने प्रारम्भ किये। क्षुरे के समान तीक्ष्णाग्र वे छः सहस्र पाश कुछ क्षणों में छिन्न हो गये। भवपाश जो आश्रित के काट देता है, उसे मुरपाश रोकते। गरुड़ अब खाई पर उड़े तो उसके जल में रहने वाले पंचसिरा दैत्य मुर युद्ध करने उठ खड़ा हुआ। पांचजन्य की प्रलय ध्वनि ने उसे जगा दिया था। निसुन्द, विरूपाक्ष, हयग्रीव, पंचक- ये द्वारपाल कितनी देर युद्ध करते? भौमासुर ने मुर के सातों पुत्रों को भेजा। ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान और अरुण- ये सेनापति पीठ के नेतृत्व में क्रोध में भरे निकले। अन्ततः उनके पिता को मार दिया गया था। अस्त्र शस्त्रों की झड़ी लगा दी इन्होंने, किन्तु कुछ क्षण में ही श्रीकृष्ण के बाणों ने सब समाप्त कर दिया। चक्र ने सब दैत्यों को मार दिया। अब नरकासुर ने शतघ्नियों का आघात प्रारम्भ किया। शीघ्र पता लग गया कि वह प्रयत्न व्यर्थ है। आकाश में अनन्त ऊँचाई तक उड़ने में समर्थ गरुड़ का तोप (शतघ्नियों) के गोले क्या बिगाड़ लेते। उलटे क्षण-क्षण में चक्र की ज्वाला नगर पर टूटती थी और प्रत्येक बार कोई न कोई भवन ध्वस्त हो जाता था। इससे तो सम्मुख युद्ध ही उत्तम था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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