श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. असुर-वज्रनाभ
असुर कुल में परस्पर संघर्ष नहीं होना चाहिए। इसका एक ही उपाय था वज्रनाभ के पास कि वह संघर्ष का केन्द्र स्थानान्तरित करे। सुरों से संघर्ष करना ही उसके पास एकमात्र उपाय था। अतः वह स्वर्ग पहुँचा और देवराज इन्द्र से बोला- 'सम्पूर्ण त्रिलोकी महर्षि कश्यप के पुत्रों की है। अदिति की सन्तान इस पर बहुत दिन शासन कर चुकी। अब मैं त्रिभुवन पर शासन करूँगा। मेरे लिए स्वर्ग ख़ाली करा दो अथवा युद्ध करो।' दूसरे असुर वरदान पाकर सीधे आक्रमण कर देते थे; किन्तु वज्रनाभ ने आकर चुनौती दी थी। देवगुरु वृहस्पति ने शुक्र को समझाया- 'इससे युद्ध करके सुरसमर विजयी नहीं हो सकते, अतः अभी अवसर प्राप्त करो और इसमें सहायक ढूँढ़ो।' इन्द्र ने गुरु की सम्मति से कहा- 'भाई वज्रनाभ! हम सबके पिता महर्षि कश्यप इस समय यज्ञ में दीक्षित हैं। उनका यज्ञ पूरा हो जाने दो तो वे आकर जैसा निर्णय कर देंगे, हम मान लेंगे।' 'तुम पिता का निर्णय मान लोगे?' वज्रनाभ ने फिर पूछा। 'पिता का आदेश हम स्वीकार कर लेंगे और आप भी स्वीकार करेंगे।' इन्द्र ने कह दिया। वज्रनाभ उसी समय महर्षि कश्यप के समीप यज्ञ मण्डप में पहुँचा। उसका कहना था- 'अमरावती पर केवल अदिति के पुत्रों का ही आधिपत्य क्यों? वे बहुत दिन शासन कर चुके। अब मुझे यह स्वत्व मिलना चाहिए।' 'बेटा! मैं इस समय यज्ञ में व्यस्त हूँ।' वज्रनाभ ने पिता की बात स्वीकार कर ली और वज्रपुर लौट गया। देवराज को समय मिल गया। किन्तु श्रीहरि के अतिरिक्त दूसरा कौन वज्रनाभ के विरुद्ध उनकी सहायता करने में समर्थ था। अतः वे द्वारिका पहुँचे। 'आप सदा से सुरों के शरणद हैं। इन्द्र ने अदृश्य रहकर ही श्रीकृष्णचन्द्र से प्रार्थना की- 'कृपा करके आपने उपेन्द्रत्व स्वीकार किया, मेरे अनुज बने, अतः विपत्ति में आपकी शरण आया हूँ। वज्रनाभ से आप ही अमरावती की रक्षा कर सकते है।' 'इस समय मेरे पिताजी का यज्ञ उपस्थित है।' इन्द्र स्वर्ग गये और उसी समय उन्होंने अमरावती के सरोवर में बिहार करने वाले दिव्य हंसों को बुलवाकर कहा- 'तुम लोग वज्रपुर जाना प्रारंभ कर दो। वह स्वर्ग से कम रमणीक नहीं है। वज्रनाभ तुम हंसों को नहीं रोकेगा।' 'हम वहाँ जा चुके हैं। बहुत सुरम्य है वज्रपुर।' त्रिभुवन में विचरण करने वाले देवहंस जो सब प्राणियों की भाषा बोलने में समर्थ थे, उन्होंने कहा- 'दानवेन्द्र वज्रनाभ हमें पहिचानते हैं।' हम जब पहिली बार वज्रपुर के ऊपर से निकले थे तो उन्होंने दूत भेजकर हमें आमन्त्रित किया था और वज्रपुर में उतरने पर कहा था- 'तुम तो स्वर्गीय हंस हो। तुम्हारी बोली बहुत सुन्दर है। तुम इस नगर में आया करो और स्वेच्छानुसार विचरण करो। उत्सवों पर अवश्य आओ। यहाँ तुम्हें कोई असुविधा हो तो मुझे कह देना। तुममें-से किसी को भी तंग करने वाले को मैं दण्डित करूँगा। इस नगर को भी अमरावती के समान अपनी विहार-भूमि बना लो।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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