श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
25. प्रद्युम्न-परिणय
'जिनमें छीनने का साहस हो, आ जाये।' प्रद्युम्न ने इतने में राजकन्या को उठाकर रंगस्थल के बाहर खड़े अपने रथ पर बैठा दिया था और धनुष चढ़ाकर घोषणा करते हुए रथ पर बैठ गये। रुक्मी ने अपनी सेना को सावधान कर दिया था। उसका रथ भी खड़ा था। किन्तु उसे कुछ करना नहीं पड़ा। उसने विस्मय-मुग्ध होकर प्रद्युम्न की बाण-वर्षा देखी और निश्चिन्त हो गया। वह महायोधा-युद्ध का कुशल खिलाड़ी-आगतों के बल-विक्रम को भली प्रकार जानता था वह। प्रद्युम्न का रणकौशल-इस शर-वर्षा का सामना तो गिने चुने प्रसिद्ध महारथी भी कदाचित ही कर सकें, यह समझने में रुक्मी को देर नहीं लगी। वह चुपचाप देखता रहा यह अद्भुत पराक्रम। और उसका अनुमान भी पूरा नहीं पड़ा। उसके अनुमान से भी बहुत पहिले विरोध करने वाले राजकुमारों के समूह में भगदड़ मच गयी। वे सब आहत होकर सेना और वाहनों के शव तथा घायल छोड़कर भाग खड़े हुए। 'प्रद्युम्न को कन्या के साथ लौटा लाना।' रुक्मी ने अपने मन्त्री को पहिले ही रथ से आगे भेज दिया था- 'मैं सविधि-कन्या-दान करूँगा।' सचमुच रुक्मी यह सावधानी न करता तो प्रद्युम्न के रथ को पाया नहीं जा सकता था। उसके रथ का वेग रोकने में सब राजकुमार मिलकर भी सफल नहीं हुए थे और पीछे से चलकर तो कोई रथ उसे पा सकता ही नहीं था। प्रद्युम्न को लौटना न पड़ता, वे सीधे द्वारिका पहुँचते। वे लौटे। रुक्मी ने बड़े उत्साह से विवाह सम्पन्न किया। इतना अधिक दहेज जो कोई सोच न सके। नववधू के साथ जब वे द्वारिका पहुँचे, देवी रुक्मिणी तो भाई के स्नेह का स्मरण करके विह्वल हुई ही- दहेज विपुलता ने सबको चकित कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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