श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. रुक्मिणी विवाह
'श्रीकृष्णचन्द्र आ गये।' समाचार ने मगधराज जरासन्ध, दमघोष आदि के शिविरों की ओर से नागरिकों को विरत कर दिया। ब्राह्मण, सूत, मागध, बन्दी तक के लिये जैसे वे शिविर रहे ही नहीं। राजकुमार रुक्मी और उसके सेवकों के अतिरिक्त कोई उधर मुख नहीं करता। द्वारिका के शिविर की ओर जन-प्रवाह उमड़ पड़ा है और जहाँ विवाह के मंगलकृत्य चल रहे हैं, वहाँ केवल बारात में आये लोग ही रह गये हैं। 'कृष्ण-बलराम सेना लेकर आ गये।' मगधराज और उसके साथी सुनते ही सावधान हो गये। उन्होंने अपनी बैठक की। सेना को सन्नद्ध किया और किसी भी क्षण युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये। वैवाहिक उत्सव- उल्लास पर आशंका की छाया घिर गयी। 'आप सब अकारण चिंतित हैं।' राजकुमार रुक्मी कुछ सुनने-मानने को प्रस्तुत नहीं था। राजभवन की कोई सुरक्षा आवश्यक है, यह उसने स्वीकार नहीं किया। भले उसका गर्व हो कि यादव इतनी घृष्टता का साहस नहीं करेंगे। बात उसकी ठीक थी। श्रीकृष्णचन्द्र और उनके अनुगत इतने क्रूर नहीं थे कि वे राजसदन पर आक्रमण करके अन्तःपुर के सेवकों पर कन्या-हरण के लिये हाथ उठाते। जरासन्धादि अपने सैनिकों के साथ पूरी रात्रि जागते रहे। उन्हें राजकुमार रुक्मी को असन्तुष्ट नहीं करना था, अन्यथा वे तो चाहते थे कि राजसदन उनके सैनिक घेरे में रहे, किन्तु सावधान बने रहे वे। किसी क्षण भी उनको राजकन्या की रक्षा के लिए दौड़ना पड़ सकता था। यादव शिविर में सबने निश्चित विश्राम किया। भगवान बलराम ने कह दिया था छोटे भाई से- 'तुम राजकन्या को लकर द्वारिका की ओर रथ ले जाओ। शेष सब मुझ पर छोड़ दो।' गद, सात्यकि आदि सभी उत्साह में भरे थे। सबका एक ही मत था- 'विरोधियों की छाया तक गरुड़ध्वज रथ के समीप नहीं पहुँचने दी जायेंगी।' सूर्योदय के किञ्चित काल के पश्चात ही राजभवन से नगर के बाहर देवी मन्दिर तक कुण्डिनपुर के सशस्त्र सैनिक पथ के दोनों ओर खड़े हो गये। उन्होंने अपने खड़्ग कोश से बाहर करके हाथ में उठा रखे थे। राजभवन से वाद्यों की ध्वनि आयी। आगे वाद्य और पीछे अश्वारोही सैनिक। मध्य में सौभाग्यवती स्त्रियों, सेविकाओं, ब्राह्मणियों से घिरी राजकन्या। मंगल गीत गाती नारियों के मध्य वह अवगुण्ठनवती ज्योतिकिरण-सी नववधू धीरे-धीरे अपने मृदुल अरुण चरण भूमि पर रखती शान्त, सिर झुकाये, संकोच से सिमटी चली जा रही थी। हंस-गति, रत्नाभरणों का क्वणन, मंगलगीत- शोभा का वर्णन संभव नहीं। 'राजकन्या देवी-पूजन के लिए जा रही है।' सभी नरेश अपनी सेना के साथ पथ के दोनों पार्श्वों में आ गये थे। रथ, अश्व, गज सभी सुसज्ज। सब कवच-शिरस्त्राण धारण किये और अस्त्र-शस्त्र लिये। सब के मन में आंशका- 'किसी क्षण यादव कन्या- हरण कर सकते हैं।' यादव सैनिक भी पथ के पार्श्व में शस्त्र सज्ज आ गये। उनकी गजसेना, रथ, अश्व तथा पदाति भी आये और जब सभी राजकन्या की देवी यात्रा के दर्शन करने आये थे, कोई भी किसी को रोक कैसे सकता था। महासेनापति अनाधृष्ट ने कैसा व्यूह बनाया है, यह मगधराज तथा उसके साथियों में किसी ने लक्षित नहीं किया। वे इतने से संतुष्ट थे कि श्रीकृष्ण का गरुड़ध्वज रथ दर्शकों के समूह में कहीं दीखता नहीं था और संकर्षण का रथ भी दूर-तटस्थ की भाँति था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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