श्री चैतन्योपदिष्ट प्रेम दर्शन 4

श्री चैतन्योपदिष्ट प्रेम दर्शन

डाँ. आचार्य श्री गौर कृष्ण जी गोस्वामी शास्त्री, काव्य पुराण दर्शन तीर्थ, आयुर्वेद शिरोमणि


गौरांगना हइत के मन हइत केमन राखि ताम देहरे।
राधार महिमा प्रेम रससीमा जगते जानातो के हरे।।

श्री प्रबोधानन्द सरस्वती के शब्दों में - प्रेम का परम पुरुषार्थ रूप क्या किसी ने सुना है? नाम महिमा को क्या कभी किसी ने जाना है? श्री वृन्दावन माधुरी में क्या किसी का प्रवेश कभी सुना है? महाभाव स्वरूपा श्रीराधा की महिमा को क्या कोई जानता था? यह सब श्री चैतन्य देव की कृपा से सांसारिक जीवों को उपलब्ध हुआ है।

सर्वश्रेष्ठ भक्ति के पाँच अंग
श्रीमन्महाप्रभु ने साधन-भक्ति के चौंसठ अंगों में से साधु-संग, नाम-कीर्तन, भागवत-श्रवण, मथुरा मण्डल में वास और श्री मूर्ति-सेवन को सर्वश्रेष्ठ साधन माना है -
साधुसंग, नाम कीर्तन, भागवतश्रवण,
मथुरा वास, श्रीमूर्ति श्रद्धाय सेवन।
सकल साधन श्रेष्ठ एई पाँच अंग,
कृष्ण प्रम जन्माय, ऐई, पाँचेर अल्पसंग।।

मथुरा मण्डल में श्री वृन्दावन को सर्वोत्तम कहा गया है। राय रामानन्द ने श्रीमन्महाप्रभु ने पूछा कि सब त्याग कर जीव को कहाँ रहना चाहिये - ‘सर्वत्यजि जीवेर कर्तव्य कहाँ वास?’ तब उन्होंने उत्तर दिया - ‘श्री वृन्दावन भूमि जहाँ लीला रास।’ सारे माया-बन्धनों को त्याग कर जीव को सच्चिदानन्द घन स्वरूप, माया एवं काल से अतीत, श्रीकृष्ण का नित्य विहार स्थल, जहाँ नित्य रास-विहार चलता रहता है, उस श्री वृन्दावन में निवास करना चाहिये और वहाँ जीव सकल साधनों में सर्वोत्तम इन पाँच अंगों की अल्पकालीन आराधना से सहज ही रागानुगा रीति मार्ग द्वारा श्रीराधाकृष्ण का श्री चरणाश्रय प्राप्त कर लेता है।

सोई रसना जो हरिगुन गावै।
नैनन की छबि यहै चतुरता, ज्यों मकरंद मुकुंदहि ध्यावै।।
निर्मल चित तौ सोई साँचो, कृष्ण बिना जिय और न भावै।
स्त्रवननकी जु यहै अधिकाई, सुनि हरि-कथा सुधारस प्यावै।।
कर तेई जे स्यामहि सेवै चरननि चलि बृंदाबन जावै।
सूरदास जैये बलि ताके, जो हरिजू सों प्रीति बढ़ावै।।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भजन-संग्रह पद 197

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