श्री चैतन्योपदिष्ट प्रेम दर्शन
- प्रेम का स्वरूप
- सम्यङ्मसृणितस्वान्तो ममत्वातिशयांकितः।
- भावः स एव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेमा निगद्यते।।[1]
अर्थात भाव अथवा रति जब प्रकाढ़ता प्राप्त करती है और उसके कारण चित्त भली-भाँति द्रवित हो कर श्रीकृष्ण के प्रति अतिशय ममता सम्पन्न होता है, तब उसे प्रेम कहते हैं।
इसीलिये श्री मन्महाप्रभु ने प्रेम को परम पुरुषार्थ के रूप में परिगणित किया है - ‘प्रेमा पुमर्थो महान्’।
- प्रेम के साधन
- आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोऽथ भजनक्रिया।
- ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्तत्तो निष्ठा रुचिस्ततः।।
- अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाऽभ्युदञ्चति।
- साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत् क्रमः।।[2]
उपर्युक्त श्लोकों में प्रेम के साधन-क्रम को दर्शाया गया है जो इस प्रकार है -
साधुसंग - सर्वार्थसिद्धिप्रदायक साधुसंग।
भजन - श्रवण-कीर्तनों का अनुष्ठान।
अनर्थनिवृत्ति - भजन सम्पन्न होने पर अनर्थों की निवृत्ति स्वतः हो जाती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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