श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 10-19

पंचम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद


उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इंद्रस्पृक, विदर्भ और कीकट -ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रमिल, चमस और करभाजन -ये नौ राजकुमार भावगत धर्म का प्रचार करने वाले बड़े भगवद्भक्त थे।

भगवान् की महिमा से महिमान्वित और परमशान्ति से पूर्ण इनका पवित्र चरित हम नारद-वसुदेव संवाद के प्रसंग से आगे (एकादश स्कन्ध में) कहेंगे। इनसे छोटे जयन्ती के इक्यासी पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाले, अति विनीत, महान् वेदज्ञ और निरन्तर यज्ञ करने वाले थे। वे पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये थे।

भगवान् ऋषभदेव, यद्यपि परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित, केवल आनन्दानुभवस्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे, तो भी अज्ञानियों के समान कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार प्राप्त धर्म का आचरण करके उसका तत्त्व न जानने वाले लोगों को उसकी शिक्षा दी। साथ ही सम, शान्त, सुहृद् और कारुणिक रहकर धर्म, अर्थ, यश, सन्तान, भोग-सुख और मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया। महापुरुष जैसा-जैसा आचरण करते हैं, दूसरे लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं। यद्यपि वे सभी धर्मों के साररूप वेद के गूढ़ रहस्य को जानते थे, तो भी ब्राह्मणों की बतलायी हुई विधि से साम-दानादि नीति के अनुसार ही जनता का पालन करते थे। उन्होंने शास्त्र और ब्राह्मणों के उपदेशानुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा और ऋत्विज् आदि से सुसम्पन्न सभी प्रकार के सौ-सौ यज्ञ किये। भगवान् ऋषभदेव के शासनकाल में इस देश का कोई भी पुरुष अपने लिये किसी से भी अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी इच्छा नहीं करता था। यही नहीं, आकाशकुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भाँति कोई किसी की वस्तु की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था।

एक बार भगवान् ऋषभदेव घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त देश में पहुँचे। वहाँ बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियों की सभा में उन्होंने प्रजा के सामने ही अपने समाहितचित्त तथा विनय और प्रेम के भार से सुसंयत पुत्रों को शिक्षा देने के लिये इस प्रकार कहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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