श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
श्रीमद्भागवत-माहात्म्य
श्रीमद्भागवत अष्टादश पुराणों में सर्वश्रेष्ठ महापुराण माना जाता है। व्युत्पत्ति के अनुसार भागवत का एक अर्थ है- ‘भगवतः इदं भागवतम्’ जो भगवान का है उसे ‘भागवत’ कहते हैं। भागवत भगवान का स्वरूप है, भगवान श्रीकृष्ण और भागवत एक हैं। दूसरा अर्थ है- भगवान के स्वरूप को दिखाने वाला जो शास्त्र है, वह भागवत है। तीसरा अर्थ है - ‘भगवतः अयं भागवतः’ जो व्यक्ति भगवान का बन जाता है उसे भी भागवत कहते हैं। अतः भागवत का अर्थ होता है भगवान का भक्त। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवत्तत्त्व, उसे जानने का साधन, और उसे जानने वाला व्यक्ति सभी ‘भागवत’ कहलाते हैं भागवत का एक और भी अर्थ होता है। ‘भा’ माने प्रकाश-चैतन्य-ज्ञानस्यरूप। यह परमात्मा का स्वरूप है। ऐसे परमात्मा को जानने का, उनके समीप पहुँचने का साधन भी तो चाहिए। इसलिए दूसरा अक्षर आता है ‘ग’। ग का अर्थ होता ‘जानना’ और ‘जाना’। ‘गम्’ धातु का प्रयोग इन दोनों अर्थों में होता है। हमें भगवान के पास पहुँचना है यद्यपि भगवान हमारा अपना स्वरूप ही है, तथापि अभी हम उनसे बहुत दूर हैं। बीच में क्या आ गया है? भवसागर! ऐसा लगता है कि हम इस किनारे हैं भगवान दूसरे किनारे पर है और बीच में एक विशाल सागर है। उसे पार करने के लिऐ नौका चाहिए। इसी को तरणी कहते हैं। तो ‘भा’ माने भगवान ‘ग’ माने जानना या पहुँचना और ‘त’ माने तरणी या नौका। बीच में ‘व’ अक्षर रह गया। हम जिस नौका में बैठे हों उसमें कहीं छेद हो तो पार ले जाने के स्थान पर वह नौका हमें डुबा देगी। अतः नौका, श्रेष्ठ, सृदढ़ होनी चाहिए। तो ‘व’ माने वर-श्रेष्ठ। इस प्रकार ‘भागवत’ का अर्थ हुआ हमें भगवान के पास पहुँचाने वाली श्रेष्ठ तरणी। भागवत को केवल ग्रंथ न समझें। श्रीमद्भागवत भगवान का स्वरूप है, भक्त का स्वरूप है और साधन का भी स्वरूप हैं यहाँ पर द्वैत नाम की कोई चीज ही नहीं है। विचार करने पर बीच में दीखने वाला भवसागर भी असिद्ध हो जाता है और ज्ञात होता है कि वहाँ कुछ है ही नहीं। अतः ‘भागवत’ शब्द का अर्थ हुआ अद्वय ज्ञान और वह भगवान ही है। इस संक्षिप्त विचार का ही विस्तृत वर्णन आगे ‘भागवत माहात्म्य’ में किया गया है। |
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