श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 383

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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परम गुह्य ज्ञान
अध्याय 9 : श्लोक-2

कभी-कभी लोगों को यह भ्रम रहता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है और जब शरीर नहीं रहता या मनुष्य को शरीर से मुक्ति मिल जाती है तो आत्मा शून्य में रहता है और निराकार बन जाता है। किन्तु यह वास्तविकता नहीं है। जो आत्मा शरीर के भीतर इतना सक्रीय रहता है वह शरीर से मुक्त होने के बाद इतना निष्क्रिय कैसे हो सकता है? यह सदैव सक्रिय रहता है। यदि यह शाश्वत है, तो यह शाश्वत सक्रिय रहता है और वैकुण्ठलोक में इसके कार्यकलाप अध्यात्मज्ञान के गुह्यतम अंश हैं। अतः आत्मा के कार्यों को यहाँ परा समस्त ज्ञान का राजा, समस्त ज्ञान का गुह्यतम अंश कहा गया है।

यह ज्ञान समस्त कार्यों का शुद्धतम रूप है, जैसा कि वैदिक साहित्य में बताया गया है। पद्मपुराण में मनुष्य के पापकर्मों का विश्लेषण किया गया है और दिखाया गया है कि ये पापों के फल हैं। जो लोग सकामकर्मों में लगे हुए हैं वे पापपूर्ण कर्मों के विभिन्न रूपों एवं अवस्थाओं में फँसे रहते हैं। उदाहरणार्थ, जब बीज बोया जाता है तो तुरन्त वृक्ष नहीं तैयार हो जाता, इसमें कुछ समय लगता है। पहले एक छोटा सा अंकुर रहता है, फिर यह वृक्ष का रूप धारण करता है, तब इसमें फूल आते हैं, फल लगते हैं और तब बीज बोने वाले व्यक्ति फूल तथा फल का उपभोग कर सकते हैं। इसी प्रकार जब कोई मनुष्य पापकर्म करता है, तो बीज की ही भाँति इसके भी फल मिलने में समय लगता है। इसमें भी कई अवस्थाएँ होती हैं। भले ही व्यक्ति में पापकर्मों का उदय होना बन्द हो चुका हो, किन्तु किये गये पापकर्म का फल तब भी मिलता रहता है। कुछ पाप तब भी बीज रूप में बचे रहते हैं, कुछ फलीभूत हो चुके होते हैं, जिन्हें हम दुख तथा वेदना के रूप में अनुभव करते हैं।

जैसा की सातवें अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक में बताया गया है जो व्यक्ति समस्त पापकर्मों के फलों (बन्धनों) का अन्त करके भौतिक जगत् के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है, वह भगवान् कृष्ण की भक्ति में लग जाता है। दूसरे शब्दों में, जो लोग भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, वे समस्त कर्मफलों (बन्धनों) से पहले से मुक्त हुए रहते हैं। इस कथन की पुष्टि पद्मपुराण में हुई है–

अप्रारब्धफलं पापं कूटं बीजं फलोन्मुखम्।
क्रमेणैव प्रलियेत विष्णुभक्तिरतात्मनाम्।।

जो लोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके सारे पापकर्म चाहे फलीभूत हो चुके हो, सामान्य हों या बीज रूप में हों, क्रमशः नष्ट हो जाते हैं। अतः भक्ति की शुद्धिकारिणी शक्ति अत्यन्त प्रबल है और पवित्रम् उत्तमम् अर्थात् विशुद्धतम कहलाती है। उत्तम का तात्पर्य दिव्य है। तमस् का अर्थ यह भौतिक जगत् या अंधकार है और उत्तम का अर्थ भौतिक कार्यों से परे हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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