श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 340

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-23

न केवल देवता, अपितु सामान्य जीव भी परमेश्वर के अंग (अंश) हैं। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि ब्राह्मण परमेश्वर के सर हैं, क्षत्रिय उनकी बाहें हैं, वैश्य उनकी कटि तथा शुद्र उनके पाँव हैं, और इन सबके अलग-अलग कार्य हैं। यदि कोई देवताओं को तथा अपने आपको परमेश्वर का अंश मानता है तो उसका ज्ञान पूर्ण है। किन्तु यदि वह इसे नहीं समझता तो उसे भिन्न लोकों की प्राप्ति होती अहि, जहाँ देवतागण निवास करते हैं। यह वह गन्तव्य नहीं है, जहाँ भक्तगण जाते हैं।

देवताओं से प्राप्त वस नाशवान होते हैं, क्योंकि इस भौतिक जगत के भीतर सारे लोक, सारे देवता तथा उनके सारे उपासक नाशवान हैं। अतः इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि ऐसे देवताओं की उपासना से प्राप्त होने वाले सारे फल नाशवान होते हैं, अतः ऐसी पूजा केवल अल्पज्ञों द्वारा की जाती है। चूँकि परमेश्वर की भक्ति में कृष्णभावनामृत में संलग्न व्यक्ति ज्ञान से पूर्ण दिव्य आनन्दमय लोक की प्राप्ति करता है अतः उसकी तथा देवताओं के सामान्य उपासक की उपलब्धियाँ पृथक-पृथक होती हैं। परमेश्वर असीम हैं, उनका अनुग्रह अनन्त है, उनकी दया भी अनन्त है। अतः परमेश्वर की अपने शुद्धभक्तों पर कृपा भी असीम होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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