श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 331

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-15

गीता की ऐसी सारी अवैध व्याख्याएँ जो माययापहृतज्ञानाः वर्ग के लोगों द्वारा की गई हैं और परम्परा पद्धति से हटकर हैं, अध्यात्मिक जानकारी के पथ में रोड़े का कार्य करती हैं। मायाग्रस्त व्याख्याकार न तो स्वयं भगवान् कृष्ण के चरणों की शरण में जाते हैं और अन्यों को इस सिद्धान्त का पालन करने के लिए शिक्षा देते हैं।

(4) दुष्कृतियों की चौथी श्रेणी आसुरं भावमाश्रिताः अर्थात् आसुरी सिद्धान्त वालों की है। यह श्रेणी खुले रूप से नास्तिक होती है। इनमें से कुछ तर्क करते हैं कि परमेश्वर कभी भी इस संसार में अवतरित नहीं हो सकता, किन्तु वे इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं बता पाते कि ऐसा क्यों नहीं हो सकता। कुछ ऐसे हैं जो परेमश्वर को निर्विशेष रूप के अधीन मानते हैं, यद्यपि गीता में इसका उल्टा बताया गया है। नास्तिक श्रीभगवान् के द्वेषवश अपनी बुद्धि से कल्पित अंक अवैध अवतारों को प्रस्तुत करते हैं। ऐसे लोग जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य भगवान को नकारना है, श्रीकृष्ण के चरणकमलों के कभी शरणागत नहीं हो सकते।

दक्षिण भरत के श्रीयामुनाचार्य अल्बन्दरू ने कहा है “हे प्रभु! आप उन लोगों द्वारा नहीं जाने जाते जो नास्तिक सिद्धान्तों में लगे हैं, भले ही आप विलक्षण गुण, रूप तथा लीला से युक्त हैं, सभी शास्त्रों ने आपका विशुद्ध सत्त्वमय विग्रह प्रमाणित किया है तथा दैवी गुणसम्पन्न दिव्य ज्ञान के आचार्य भी आपको मानते हैं।”

अतएव (1) मूढ़ (2) नराधम (3) माययापहृतज्ञानी अर्थात भ्रमित मनोधर्मी, तथा (4) नास्तिक – ये चार प्रकार के दुष्कृती कभी भी भगवान के चरणकमलों की शरण में नहीं जाते, भले ही सारे शास्त्र तथा आचार्य ऐसा उपदेश क्यों न देते रहें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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