श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 329

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-15

ऐसे लोग जो अपने द्वारा उत्पन्न कर्मों के भार से दबे रहते हैं प्रायः यह कहते सुने जाते हैं कि उनके पास अवकाश कहाँ कि वे जीव की अमरता के विषय में सुने ऐसे मूढों के लिए नश्वर भौतिक लाभ ही जीवन का सब कुछ होता है भले ही वे अपने श्रम फल के एक अंश का ही उपभोग कर सकें। कभी-कभी वे लाभ के लिए रातदिन नहीं सोते, भले ही उनके आमाशय में व्रण हो जाय या अपच हो जाय, वे बिना खाये ही संतुष्ट रहते हैं, वे मायामय स्वामियों के लाभ हेतु अहर्निश काम में व्यस्त रहते हैं। अपने असली स्वामी से अनभिज्ञ रहकर ये मुर्ख कर्मी माया की सेवा में व्यर्थ ही अपने समय गँवाते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि वे कभी भी स्वामियों के परम स्वामी की शरण में नहीं जाते, न ही वे सही व्यक्ति से उसके विषय में सुनने में कोई समय लगाते हैं। जो सूकर विष्ठा खाता है वह चीनी तथा घी से बनी मिठाइयों की परवाह नहीं करता। उसी प्रकार मुर्ख कर्मी इस नश्वर जगत् की इन्द्रियों को सुख देने वाले समाचारों को निरन्तर सुनता रहता है, किन्तु संसार को गतिशील बनाने वाली शाश्वत जीवित शक्ति (प्राण) के विषय में सुनने में तनिक भी समय नहीं लगाता।

(2) दूसरे प्रकार के दुष्कृती नराधम अर्थात् अधम व्यक्ति कहलाता है। नर का अर्थ है मनुष्य, मनुष्य और अधम का अर्थ है, सब से नीच चौरासी लाख जीव योनियों में से चार लाख मानव योनियाँ हैं। इनमें से अनेक निम्न मानव योनियाँ हैं, जिनमें से अधिकांश असंस्कृत हैं। सभ्य मानव योनियाँ वे हैं जिनके पास सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक नियम हैं। जो मनुष्य सामाजिक तथा राजनीतिक दृष्टि से उन्नत हैं, किन्तु जिनका कोई धर्म नहीं होता वे नराधम माने जाते हैं। धर्म ईश्वरविहीन नहीं होता क्योंकि धर्म का प्रयोजन परमसत्य को तथा उसके साथ मनुष्य के सम्बन्ध को जानना है। गीता में भगवान् स्पष्टतः कहते हैं कि उनसे परे कोई भी नहीं और वे ही परमसत्य हैं। मनुष्य-जीवन का सुसंस्कृत रूप सर्वशक्तिमान परमसत्य श्रीभगवान् कृष्ण के साथ मनुष्य की विस्मृतभावना को जागृत करने के लिए मिला है। जो इस सुअवसर को हाथ से जाने देता है वही नराधम है। शास्त्रों से पता चलता है कि जब बालक माँ के गर्भ में अत्यन्त असहाय रहता है, तो वह अपने उद्धार के लिए प्रार्थना करता है और वचन देता है कि गर्भ से बाहर आते ही वह केवल भगवान् की पूजा करेगा। संकट के समय ईश्वर का स्मरण प्रत्येक जीव का स्वभाव है, क्योंकि वह ईश्वर के साथ सदा से सम्बन्धित रहता है। किन्तु उद्धार के बाद बालक जन्म-पीड़ा को ओर उसी के साथ अपने उद्धारक को भी भूल जाता है, क्योंकि वह माया के वशीभूत हो जाता है।

यह तो बालकों के अभिभावकों का कर्तव्य है कि वे उनमें सुप्त दिव्य भावनामृत को जागृत करें। वर्णाश्रम पद्धति में मनुस्मृति के अनुसार ईशभावनामृत को जागृत करने के उद्देश्य से दस शुद्धि-संस्कारों का विधान है, जो धर्म का पथ-प्रदर्शन करते हैं। किन्तु अब विश्व के किसी भाग में किसी भी विधि का दृढ़तापूर्वक पालन नहीं होता और फलस्वरूप 99.9% जनसंख्या नराधम है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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