श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 328

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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भगवद्ज्ञान
अध्याय 7 : श्लोक-15

नास्तिक योजना-निर्माताओं को यहाँ दुष्कृतिनः कहा गया है जिसका अर्थ है, दुष्टजन। कृती का अर्थ पुण्यात्मा है। नास्तिक योजना-निर्माता कभी-कभी अत्यन्त बुद्धिमान और प्रतिभाशाली होता है, क्योंकि किसी भी विराट योजना के लिए, चाहे वह अच्छी हो या बुरी, बुद्धि की आवश्यकता होती है। लेकिन नास्तिक की बुद्धि का प्रयोग परमेश्वर की योजना का विरोध करने में होता है, इसीलिए नास्तिक योजना-निर्माता दुष्कृती कहलाता है, जिससे सूचित होता है की उसकी बुद्धि तथा प्रयास उलटी दिशा की ओर होते हैं।

गीता में यह स्पष्ट कहा गया है कि भौतिक शक्ति परमेश्वर के पूर्ण निर्देशन में कार्य करती है। उसका कोई स्वतन्त्र प्रभुत्व नहीं है। जिस प्रकार छाया पदार्थ का अनुसरण करती है, उसी प्रकार यह शक्ति भी कार्य करती है। तो भी यह भौतिक शक्ति अत्यन्त प्रबल है और नास्तिक अपने अनीश्वरवादी स्वभाव के कारण यह नहीं जान सकता कि वह किस तरह कार्य करती है, न ही वह परमेश्वर की योजना को जान सकता है। मोह तथा रजो एवं तमोगुणों में रहकर उसकी सारी योजनाएँ उसी प्रकार ध्वस्त हो जाती है, जिस प्रकार भौतिक दृष्टि से विद्वान्, वैज्ञानिक, दार्शनिक, शासक तथा शिक्षक होते हुए भी हिरण्यकशिपु तथा रावण की सारी योजनाएँ ध्वस्त हो गई थीं। ये दुष्कृति या दुष्ट चार प्रकार के होते हैं जिनका वर्णन नीचे दिया जाता है–

(1) मूढ़– वे जो कठिन श्रम करने वाले भारवाही पशुओं की भाँति निपट मूर्ख होते हैं। वे अपने श्रम का लाभ स्वयं उठाना चाहते हैं, अतः वे भगवान को उसे अर्पित करना नहीं चाहते। भारवाही पशु का उपयुक्त उदाहरण गधा है। इस पशु से उसका स्वामी अत्यधिक कार्य लेता है। गधा यह नहीं जानता कि वह अहर्निश किसके लिए काम करता है। वह घास से पेट भर कर संतुष्ट रहता है, अपने स्वामी से मार खाने के भय से केवल कुछ घंटे सोता है और गधी से बार-बार लात खाने के भय के बावजूद भी अपनी कामतृप्ति पूरी करता है। कभी-कभी गधा कविता करता है और दर्शन बघारता है, किन्तु उसके रेंकने से लोगों की शान्ति भंग होती है। ऐसी ही दशा उन सकाम-कर्मियों की है जो यह नहीं जानते कि वे किसके लिए कर्म करते हैं। वे यह नहीं जानते कि कर्म यज्ञ के लिए है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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