श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 280

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

ध्यानयोग
अध्याय 6 : श्लोक-20-23

इस युग में योग की सर्वोत्तम पद्धति कृष्णभावनामृत है जो निराशा उत्पन्न करने वाली नहीं गई। एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने धर्म में इतना सुखी रहता है कि उसे किसी अन्य सुख की आकांशा नहीं रह जाती। इस दम्भ-प्रधान युग में हठयोग, ध्यानयोग तथा ज्ञानयोग का अभ्यास करते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं, किन्तु कर्मयोग या भक्तियोग के पालन में ऐसी समस्या सामने नहीं आती।

जब तक यह शरीर रहता है तब तक मनुष्य शरीर की आवश्यकताएँ– आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन– को पूरा करना होता है। किन्तु को व्यक्ति शुद्ध भक्तियोग में अतवा कृष्णभावनामृत में स्थित होता है वह शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय इन्द्रियों को उत्तेजित नहीं करता। प्रत्युत वह घाटे के सौदे की पूर्ति करते समय जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को स्वीकार करता है और कृष्णभावनामृत में दिव्यसुख भोगता है। वह दुर्घटनाओं, रोगों, अभावों और यहान तक की अपने प्रियजनों की मृत्यु जैसी आपातकालीन घटनाओं के प्रति भी निरपेक्ष रहता है, किन्तु कृष्णभावनामृत या भक्तियोग सम्बन्धी अपने कर्मों को पूरा करने में वह सदैव सचेष्ट रहता है। दुर्घटनाएँ उसे कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर पाती। जैसा कि भगवद्गीता में[1] कहा गया है– आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत। वह इन प्रसांगिक घटनाओं को सहता है क्योंकि वह यह भलीभाँति जानता है कि ये घटनाएँ ऐसी ही आती-जाती रहती हैं और इनसे उसके कर्तव्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस प्रकार योगाभ्यास में परम सिद्धि प्राप्त करता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.14

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः