श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
बारहवाँ अध्याय
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: ॥20॥
परन्तु जो पहले कहे हुए इस धर्म्यामृत का अनुष्ठान करते हैं, वे श्रृद्धायुक्त मेरे परायण भक्त मुझे अत्यन्त प्यारे हैं।।20।।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्माविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो
नाम द्वादशोऽध्यायः।।12।।
धर्म्य च अमृतं च ‘इति’ धर्म्यामृतं ये तु प्राप्यसमं प्रापकं भक्तियोगं यथोक्तं ‘मय्यावेश्य मनो ये माम्’ [1] इत्यादिना उक्तेन प्रकारेण उपासते ते भक्ता अतितरां मे प्रियाः।।20।।
इति श्रीमद्भगवद्रामानुजाचार्य विरचिते श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये द्वादशोअध्यायः।।12।।
जो धर्म्य (धर्मानुकूल) भी हो और अमृत भी वह ‘धर्म्यामृत’ है। जो भक्त प्राप्त करने योग्य भगवान् के समान ही उसकी प्राप्ति कराने वाले पूर्वोक्त भक्तियोग की ‘मय्यावेश्य मनो ये माम्’ इत्यादि श्लोक द्वारा कहे हुए प्रकार से साधना करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।।20।।
इस प्रकार श्रीमान् भगवान् रामानुजचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीता-भाष्य के हिन्दी- भाषानुवादक बारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।।12।।
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