श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 285

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संग्ङवर्जित: ।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव ॥55॥

पाण्डुकुमार! जो मेरा कर्म करने वाला, मेरे परायण, मेरा भक्त, संगरहित और सब भूतों में वैररहित है, वह मुझे प्राप्त होता है।। 55।।


ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्माविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णर्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो
नामैकादशोऽध्यायः।। 11।।

वेदाध्ययनादीनि सर्वाणि कर्माणि मदाराधनरूपाणि इति यः करोति स मत्कर्मकृत्, मत्परमः-सर्वेषाम् आरम्भाणां अहम् एव परमोद्देश्यो यस्य स मत्परमः; मद्भक्तः-अत्यर्थ- मत्प्रियत्वेन मत्कीर्तनस्तुतिध्यानार्चन प्रणामादिभिः विना आत्मधारणम् अलभमानो मदेकप्रयोजनतया यः सततं तानि करोति स मद्भक्तः। संगवर्जितः- मदेकप्रियत्वेन इतर संगम् असहमानः। निवैरः सर्वभूतेषु मत्संश्लेषवियोगैकसुखदुःख स्वभावत्वात् स्वदुःखस्य स्वापराध निमित्तत्त्वानुसन्धानात् च सर्वभूतानां परमपुरुषपरतन्त्रत्वानुसन्धानात् च सर्वभूतेषु वैरनिमित्ताभावत् तेषु निर्वैरः।

वेदाध्ययन आदि समस्त कर्म मेरी आराधना के ही रूप हैं, ऐसी भावना रखकर जो (उन्हें) करता है, वह ‘मेरा कर्म करने वाला’ है सम्पूर्ण आरम्भों का मैं ही परम उद्देश्य हूँ, ऐसा जिसका भाव है, वह ‘मत्परायण’ है। मुझमें अतिशय प्रेम होने के कारण मेरा कीर्तन, स्तवन, ध्यान, पूजन और नमस्कार आदि किये बिना जीवन धारण करने में असमर्थ जो पुरुष केवल मात्र एक मेरे ही लिये उन सबको करता है, वह मेरा भक्त है। मुझमें अत्यन्त प्रेम होने के कारण जो दूसरे स्त्री-पुत्रादि में होने वाली आसक्ति को सहन नहीं कर सकता, वह ‘संगवर्जित’ है। केवल मेरे मिलन और वियोग से ही सुखी और दुःखी होने के स्वभाव वाला हो जाने से तथा अपने दुःख का कारण अपने ही अपराध को समझ लेने से एवं समस्त भूतों को परम पुरुष के अधीन समझ लेने से सम्पूर्ण भूतों में वैर करने का जिसके लिये कोई कारण नहीं है, इसलिये जो सम्पूर्ण प्राणियों में वैर-भाव से रहित हो गया है, वह ‘सर्वभूतो में निर्वैर’ है।

यः एवम्भूतः स माम् एति, मां यथावद् अवस्थितं प्राप्नोति। निरस्ताविद्याद्यशेषदोषगन्धो मदेकानुभवो भवति इत्यर्थः।। 55।।

जो ऐसा पुरुष है, वह मुझे पाता है-यथार्थ रूप में स्थित मुझ परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है। अभिप्राय यह है कि अविद्यादि सम्पूर्ण दोषों के गन्ध मात्र तक को सर्वथा नाश करके केवल एक मेरा ही अनुभव करने वाला हो जाता है।। 55।।

इति श्रीमद्भगवद्रामानुजाचार्य विरचिते श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये एकादशोअध्यायः।। 11।।

इस प्रकार श्रीमान भगवान रामानुजाचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीता-भाष्य के हिन्दी-भाषानुवाद का ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।। 11।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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