श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
एतच्छुत्वा वचनं कृताञ्जलिर्वेपमान: किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीत: प्रणम्य ॥35॥
संजय बोले- केशव के इस वचन को सुनकर अर्जुन हाथ जोडे़ हुए काँपता हुआ, नमस्कार करके और डरते-डरते पुनः प्रणाम करके श्रीकृष्ण से गद्गद वाणी द्वारा इस प्रकार कहने लगा-।। 35।।
एतद् आश्रितवात्सल्यजलधेः केशवस्य वचनं श्रुत्वा अर्जुनः तस्मै नमस्कृत्य भीतभीतः अतिभीतः भूयः तं प्रणम्य कृतांजलिः वेपमानः किरीटी सगद्गदम् आह।। 35।।
आश्रितवत्सलता के समुद्र भगवान केशव के ये वचन सुनकर किरीटधारी अर्जुन उनको नमस्कार करके अत्यन्त भयभीत होकर पुनः उनको प्रणाम करके हाथ जोडे़ हुए काँपता हुआ गद्गद वाणी से इस प्रकार बोला-।। 35।।
अर्जुन उवाच-
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघा: ॥36॥
अर्जुन बोले- इन्द्रियों के स्वामी परमेश्वर! यह उचित है कि आपके यश कीर्तन से जगत् अत्यन्त हर्षित और अनुराग को प्राप्त हो रहा है। राक्षसलोग भयभीत हुए दिशाओं को भाग रहे हैं और समस्त सिद्धों के समूह आपको नमस्कार कर रहे हैं।। 36।।
स्थाने युक्तम्, यद् एतद् युद्धदिदृक्षया आगतम् अशेषं देवगन्धर्वसिद्धयक्ष विद्याधरकिन्नरकिम्पुरुषादिकं जगत् त्वत्प्रसादात् त्वां सर्वेश्ररम् अवलोक्य तव प्रकीत्र्या सर्व प्रहृष्यति अनुरज्यते च। यत् च त्वाम् अवलोक्य रक्षांसि भीतानि सर्वा दिशः प्रद्रवन्ति; सर्वे सिद्धसंघाः सिद्धाद्यनुकूलसंघाः नमस्यन्ति च; तद् एतत् सर्व युक्तम् इति पूर्वेण सम्बन्धः।। 36।।
यह उचित ही है जो कि युद्ध देखने की इच्छा से यहाँ आये हुए देव, गन्धर्व, सिद्ध, यक्ष, विद्याधर, किन्नर और किम्पुरुष आदि समस्त जगत् आपकी कृपा से आप सर्वेश्वर के दर्शन कर आपके यश-कीर्तन से अत्यन्त हर्षित हो रहा है और अनुरक्त हो रहा है। तथा जो कि राक्षस लोग आपको देखकर भयभीय हुए सब दिशाओं की ओर वेग से भाग रहे हैं और समस्त सिद्धों के समुदाय- सिद्ध आदि अनुकूल बरतने वालों के संघ आपको नमस्कार कर रहे हैं ‘यह सब भी उचित ही है,’ इस पूर्व कथित वाक्य के साथ इस वाक्य का सम्बन्ध है।। 36।।
युक्तताम् एव उपपादयित-
उपर्युक्त औचित्य को ही सिद्ध करते हैं-
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्माणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसतत्त्परं यत् ॥37॥
महात्मन! ब्रह्मा के भी आदिकारणभूत कर्ता और सबसे महान् आप परमेश्वर को वे क्यों नमस्कार न करें। अनन्त! देवेश! जगन्निवास! आप अक्षर, सत्, असत् और इससे भी जो परे हैं, वह हैं।। 37।।
महात्मन् ते तुभ्यं गरीय से ब्रह्मणः हिरण्यगर्भस्य अपि आदिभूताय कत्र्रे, हिरण्यगर्भादयः कस्माद् हेतोः न नमस्कुर्युः; अनन्त देवेश जगन्निवास त्वम् एव अक्षरम् न क्षरति इति अक्षरम् जीवात्मतत्त्वम्; ‘न जायते म्रियते वा विपश्चित्’ [1]इत्यादि श्रुतिसिद्धो जीवात्मा हि न क्षरति।
महात्मन्! हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के भी आदिकारण रूप कर्ता, सबसे महान्, आप परमेश्वर को ये ब्रह्मादि देव क्यों न नमस्कार करें? अनन्त! देवेश! जगन्निवास! आप ही अक्षर-जीवात्म तत्त्व हैं। जिसका नाश न हो उसका नाम अक्षर है, इस व्युत्पत्ति से जीवात्मा का नाम अक्षर है, क्यों कि ‘जीवात्मा न जन्मता है और न मरता है’। इत्यादि श्रुतियों से प्रसिद्ध जीवात्मा कभी नष्ट नहीं होता।
सद् असत् च त्वम् एव, सदसच्छब्दनिर्दिष्टं कार्यकारणभावेन अवस्थितं प्रकृतितत्त्वम्, नाम रूपविभागवत्तया कार्यावस्थं सच्छब्दनिर्दिष्टं तदनर्हतया कारणावस्थम् असच्छब्दनिर्दिष्टं च त्वम् एव, तत्परं यत् तस्मात् प्रकृतेः प्रकृतिसम्बन्धिनः च जीवात्मनः परम् अन्यद् मुक्तात्मतत्त्वं यतृ तद् अपि त्वम् एव।। 37।।
तथा सत् और असत् भी आप ही हैं- कार्य और कारणभाव में स्थित प्रकृति तत्त्व ही सत् और असत् शब्द से वर्णित है। नामरूप विभाग से युक्त होकर कार्य अवस्था में तो सत् शब्द से वर्णित है। जब नामरूप के विभाग की अवस्था में न हो उस समय कारण-अवस्था में न हो उस समय कारण-अवस्था में स्थित असत् शब्द से कहा जाता है। वह ऐसा प्रकृति तत्त्व भी आप ही हैं तथा उससे परे भी आप ही हैं- जो इस प्रकृति से और प्रकृति से सम्बन्ध रखने वाले जीवात्माओं से श्रेष्ठ अन्य मुक्तात्मत्व है, वह भी आप ही हैं।। 37।।
अतः-
इसलिये-
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