|
श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहता: पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥33॥
इसलिये अर्जुन! तू उठ, शत्रुओं को जीतकर यश को प्राप्त कर और समृद्ध राज्य को भोग। मेरे द्वारा ये सब पहले से ही मारे हुए हैं, तू निमित्तमात्र हो जा।। 33।।
तस्मात् त्वम् तान् प्रति युद्धाय उत्तिष्ठ, तान् शत्रून् जित्वा यशो लभस्व धर्म्य राज्यं च समृद्धं भुङ्क्ष्व। मया एव एते कृतापराधाः पूर्वम् एव निहताः, हनने विनियुक्ताः, त्वं तु तेषां हनने निमित्तमात्रं भव। मया हन्यमानानां शस्त्रादिस्थानीयो भव, सव्यसाचिन् ‘षच समवाये’ [1] सव्येन शरसचनशीलः सव्यसाची; सव्येन अपि करेण शरसमवायकरः, करद्वयेन योद्धुं समर्थ इत्यर्थः।। 33।।
अतएव तू उनके साथ युद्ध करने के लिये उठ खड़ा हो और उन शत्रुओं को जीतकर यश को प्राप्त कर तथा धर्मयुक्त समृद्ध राज्य को भोग। ये अपराध करने वाले मेरे ही द्वारा पहले से ही मारे हुए हैं- मृत्यु के लिये नियत किये हुए हैं। सव्यसाचिन्! तू तो इनको मारने में केवल निमित्त भर बन जा, मेरे द्वारा मारे जाने वालों को मारने में शस्त्रादि की जगह (निमित्तमात्र) हो जा। ‘षच समवाये’ इस धातुपाठ के अनुसार समवायार्थक षच धातु से ‘साची’ पद बना है। अतः बायें हाथ से बाणों का सचन (संग्रह और सन्धान) करने वाला अर्थात् बायें हाथ से भी बाण समूहों का सन्धान करने वाला ‘सव्यसाची’ होता है। अभिप्राय यह कि तू दोनों हाथों से युद्ध करने में समर्थ है।। 33।।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥34॥
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य भी वीर योद्धा, (जो पहले ही मेरे द्वारा मारे हुए हैं) उन मेरे द्वारा मारे हुओं को तू मार, घबड़ा मत, युद्ध कर, रण में शत्रुओं को तू जीतेगा।। 34।।
द्रोण भीष्मकर्णादीन् कृतापराध तया मया एव हनने विनियुक्तान् त्वं जहि, त्वं हन्याः; गुरुन् बन्धून् च अन्यान् अपि भोगसक्तान् कथं हनिष्यामि? इति मा व्यथिष्ठाः, तान् उद्दिश्य धर्माधर्मभयेन बन्धुस्त्रेहेन कारुण्येन च मा व्यथां कृथाः। यतः ते कृतापराधाः, मया एव हनने विनियुक्ताः, अतो निर्विशंको युध्यस्व, रणे सपत्रान् जेतासि, जेष्यसि, न एतेषां वधे नृशंसतागन्धः, अपि तु जय एव लभ्यते इत्यर्थः।। 34।।
अपराधी होने के कारण जो मेरे ही द्वारा मृत्यु के लिये नियम किये गये हैं, ऐसे द्रोण, भीष्म, कर्ण आदि को तू मार। इस प्रकार से घबड़ा मत कि इन गुरु, बन्धु और अन्यान्य भोगासक्त लोगों को मैं कैसे मारूँ-उनके लिये धर्माधर्म के भय से, बन्धुस्त्रेह से या करुणा भाव से तू दुःखी मत हो। क्यों कि वे अपराधी होने के कारण मेरे द्वारा पहले से ही मृत्यु के लिये नियत किये जा चुके हैं इसलिये तू बिलकुल निःशंक होकर युद्ध कर। युद्ध में तू शत्रुओं को जीतेगा। अभिप्राय यह है कि इनको मारने में नृशंसता की गन्ध भी नहीं है, अपि तु इनके साथ युद्ध करने पर तेरी विजय ही होगी।। 34।।
|
|