श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं
महाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं
दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम् ॥23॥
महाबाहो! बहुत मुख-नेत्रों वाले, बहुत भुजा, जाँघ और पैरों वाले, बहुत उदर वाले और बहुत-सी दाढ़ों के कारण भयानक आकार वाले, आपके महान् रूप को देखकर ये लोक और में सभी अत्यन्त व्यथित हो रहे हैं।। 23।।
बह्वीभिः दंष्टृाभिः अतिभीषणाकारं लोकाः पूर्वाक्ताः प्रतिकूलानुकूल मध्यस्थाः त्रिविधाः सर्व एव अहं च तव इदम् ईदृशं रूपं दृष्ट्वा अतीव व्यथिता भवामः ।। 23।।
बहुत-सी दाढ़ों के कारण भीषण आकार वाले आपके इस रूप को देखकर पूर्वोक्त प्रतिकूल, अनुकूल और मध्यस्थ तीनों प्रकार के लोग और मैं, हम सभी अत्यन्त भयभीत हो रहे हैं।। 23।।
नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥24॥
विष्णो! आपको नभःस्पर्शी, प्रकाशमान, अनेक वर्णोवाला, फैलाये हुए मुखों वाला और प्रज्वलित विशाल नेत्रों वाला देखकर अत्यन्त व्यथितचित्त हुआ मैं निस्सन्देह धृति और शान्ति को नहीं पा रहा हूँ।। 24।।
नभःशब्दः ‘तदक्षरे परमे व्योमन्’ [1]‘आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्’[2] ‘क्षयन्तमस्य रजसः पराके’ [3]‘यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्’ [4] इत्यादि श्रुतिसिद्धत्रिगुणप्रकृत्यतीत परमव्योमवाची, सविकारस्य प्रकृति तत्त्वस्य पुरुषस्य च सर्वावस्थस्य, कृत्स्नस्य आश्रयतया नभः स्पृशम् इति वचनात्। ‘द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तम्’ [5] इति पूर्वोक्त त्वात् च।
'वह अविनाशी परम व्योम में है' 'आदित्य के समान वर्ण वाले और अन्धकार (माया)- से अत्यन्त दूर रहने वाले ' 'जो इसका अध्यक्ष है वह परम व्योम में है' इत्यादि श्रुतियों में प्रसिद्ध त्रिगुणमयी प्रकृति से अतीत परम व्योम (नित्य भगवद्धाम)- का वाचक यहाँ 'नभस्' शब्द है; क्योंकि विकासहित प्रकृतितत्त्व और सब अवस्थाओं में स्थित समस्त पुरुष समुदाय का आश्रयरूप बताकर यहाँ ‘नभः स्पृशम्’ पद का प्रयोग किया गया है तथा ‘द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन’ इस कथन से प्राकृत आकाश की बात तो पहले ही कह दी गयी है। (इससे भी यहाँ ‘नभस्’ शब्द का अर्थ उपर्युक्त ही सिद्ध होता है।)
दीप्तम् अनेकवर्ण व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रं त्वां दृष्टा प्रव्यथितान्तरात्मा अत्यन्तभीतमना धृतिं न विन्दामि, देहस्य धारणं न लभे। मनसः च इन्द्रियाणां च शमं न लभे।
तेज से जलते हुए, अनेक वर्णवाले, फैलाये हुए मुखों वाले और प्रज्वलित विशाल नेत्रों वाले आपको देखकर अत्यन्त व्यथित अन्तरात्मा-अत्यन्त भयभीत चित्तवाला मैं धृति नहीं रहा हूँ- देह को धारण नहीं कर पा रहा हूँ तथा मन और इन्द्रियों की शान्ति नहीं पा रहा हूँ।
विष्णो व्यापिन् सर्वव्यापिनम् अतिमात्रम् अत्यद्भुतम् अतिघोरं च त्वां दृष्टा प्रशिथिलसर्वावयवो व्याकुलेन्द्रियः च भवामि इत्यर्थः ।। 24।।
(अर्जुन के कथन का) अभिप्राय यह है कि विष्णो! व्यापक परमेश्वर! आपके सर्वव्यापी, अतिशय अत्यन्त अद्भुत और अत्यन्त श घोर रूप को देखकर मेरे सारे अंगोपांग अत्यन्त शिथिल हो रहे हैं और इन्द्रियाँ व्याकुल हो रही हैं।। 24।।
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