श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं-स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥19॥
मैं आपको आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त शक्तिशाली और अनन्त भुजाओं से युक्त चन्द्र-सूर्य के समान नेत्र वाले, प्रज्वलित अग्नि के समान मुखवाले और अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देख रहा हूँ।। 19।।
अनादिमध्यान्तम् आदिमध्यान्तरहितम्, अनन्तवीर्यम् अनवधिकातिशयवीर्यम्, वीर्यशब्दः प्रदर्शनार्थः, अनवधिकातिशयज्ञानबलैश्वर्यशक्तितेजसां निधिम् इत्यर्थः। अनन्त बाहुम् असङ्ख्येयबाहुम्, सोऽपि प्रदर्शनार्थः, अनन्तबाहूदरपादवक्त्रादिकम्, शशिसूर्यनेत्रं शशिवत् सूर्यवत् च प्रसादप्रतापयुक्तसर्वनेत्रम्, देवादीन् अनुकूलान् नमस्कारादिकुर्वाणान् प्रति प्रसादः, तद्विपरीतान् असुर राक्षसादीन् प्रति प्रतापः; रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः।।’ [1]इति हि वक्ष्यते।
मैं आपको अनादिमध्यान्त आदि, मध्य और अन्त से रहित और अनन्तवीर्य-असीम एवं अतिशय वीर्य (सामर्थ्य)-से युक्त (देख रहा हूँ)! यहाँ ‘वीर्य’ शब्द अन्य शक्तियों के उप लक्षण के लिये है। अभिप्राय यह है कि मैं आपको असीम अतिशय ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, शक्ति और तेज के भण्डाररूप देख रहा हूँ। तथा अनन्तबाहु-असंख्य भुजाओं से युक्त (देख रहा हूँ)। यह कथन भी उपलक्षण के लिये ही है, अभिप्राय यह है कि अनन्त भुजा, उदर, पैर और मुख आदि से युक्त (देख रहा हूँ)। तथा चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रसाद (शीतलता) एवं प्रखर तापवाले समस्त समस्त नेत्रों से युक्त (देख रहा हूँ)। अपने अनुकूल रहने और नमस्कार आदि करने वाले देवादि के प्रति आपकी दृष्टि का प्रसाद है और उनसे आपकी दृष्टि उनके विपरीत असुर-राक्षसादि के प्रति आपकी दृष्टि प्रताप (संताप) फैलाती है? ऐसी ही बात आगे कहेंगे भी-‘रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः।।’
दीप्तहुताशवक्त्रं प्रदीप्तकालानलवत् संहारानुगुणवक्त्रम्, स्वतेजसा विश्वम् इदं तपन्तम्-तेजः पराभिभवन सामर्थ्यम्, स्वकीयेन तेजसा विश्वम् इदं तपन्तं त्वां पश्यामि। एवम्भूतं सर्वस्य स्नष्टारम्, सर्वस्य आधारभूतं सर्वस्य प्रशासितारम्, सर्वस्य संहर्तारम्, ज्ञानाद्यपरिमितगुणसागरम्, आदिमध्यान्तहितम् एवम्भूतदिव्य देहं त्वां यथोपदेशं साक्षात्करोमि इत्यर्थः।
तथा मैं आपको प्रज्वलित अग्नि के समान मुखवाले-प्रलयकालीन प्रदीप्त अग्नि के समान सबका संहार करने में समर्थ मुखों से युक्त (देख रहा हूँ)। इसी प्रकार अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देखता हूँ- दूसरों को पराभूत करने की सामर्थ्य का नाम तेज है, सो अपने तेज के द्वारा इस समस्त विश्व को तपाते हुए आपको मैं देख रहा हूँ। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार सब के स्रष्टा, सबके आधार रूप, सबके शासक, सबके संहारकर्ता, ज्ञान आदि अपरिमित गुणों के समुद्र, आदि-मध्य और अन्त से रहित ऐसे दिव्य देह से युक्त आपको जैसा मुझे उपदेश मिला था, वैसे ही रूप में साक्षात् देख रहा हूँ।
एकस्मिन् दिव्यदेहे अनेकोदरादिकं कथम्?
शंका- एक ही दिव्य शरीर में अनेक उदर आदि का होना कैसे सम्भव है?
इत्थम् उपपद्यते-एकस्मात् कटि प्रदेशाद् अनन्तपरिमाणाद् ऊर्ध्वम् उद्वता यथोदितदिव्योदरादयः, अधश्च यथोदितदिव्यपादाः, तत्र एकस्मिन् मुखे नेत्रद्वयम् इति च न विरोधः।। 19।।
एवम्भूतं त्वां दृष्टा देवादयः अहं च प्रव्यथिता भवाम इति आह-
उत्तर- इस प्रकार सम्भव है- अनन्त परिणाम वाले एक कटिप्रदेश से ऊपर की ओर प्रकट हुए पूर्वोक्त अनेक दिव्य उदर आदि हो सकते हैं, तथा नीचे की ओर उपर्युक्त अनेक दिव्य पैर भी हो सकते हैं। फिर प्रत्येक मुख में दो नेत्र हो सकते हैं, इसमें भी कोई विरोध नहीं है।। 19।।
एवम्भूतं त्वां दृष्ट्वा देवादय: अहं च प्रव्याथिता भवाम इति आह-
आपको ऐसे रूप से युक्त देखकर देवादि और मैं भी- हम सभी अत्यन्त व्यथित हो रहे हैं, यह कहते हैं-
|