श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥17॥
तेज के पुञ्ज, सब ओर से देदीप्यमान, सब ओर से कठिनतापूर्वक देखे जाने वाले, प्रज्वलित अग्नि तथा सूर्य की-सी प्रभा वाले और अप्रमेयस्वरूप आपको मैं किरीट, गदा एवं चक्र धारण किये देखता हूँ।। 17।।
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तं समन्ताद् दुर्निरीक्ष्यं दीप्तानलार्कद्युतिम् अप्रमेयं त्वां किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च पश्यामि।। 17।।
मैं आपको तेज की राशि, सब ओर से देदीप्यमान, सब ओर से देखे जाने में बहुत कठिन-प्रदीप्त अग्नि और सूर्य के समान तेज वाले अप्रमेयस्वरूप तथा मुकुटधारी, गदाधारी और चक्रधारी भी देख रहा हूँ।। 17।।
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्तासनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥18॥
आप जानने योग्य परम अक्षर हैं; आप इस विश्व के परम निधान हैं; आप अविनाशी हैं; शाश्वत धर्म के रक्षक हैं और सन्तान पुरुष हैं। इस प्रकार मैंने आपको जाना है।। 18।।
उपनिषत्सु ‘द्वे विद्ये वेदितव्ये’[1]इत्यादिषु वेदितव्यतया निर्दिष्टं परमम् अक्षरं त्वम् एव। अस्य विश्वस्य परं निधानं विश्वस्य अस्य परमाधारभूतः त्वम् एव, त्वम अव्ययः व्ययरहितः, यत्स्वरूपो यद्गुणो यद्विभवश्च त्वं तेन एव रूपेण सर्वदा अवतिष्ठ से, शाश्वतधर्मगोप्ता शाश्वतस्य नित्यस्य वैदकिस्य धर्मस्य एवमादिभिः अवतारैः त्वम् एव गोप्ता। सनातनः त्वं पुरुषो मतो मे ‘’ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्’ [2] ‘परात्परं पुरुषम्’ [3] इत्यादिषु उदितः सनातनपुरुषः त्वम् एव इति मे मतो ज्ञातः। यदुकुलतिलकः त्वम् एवम्भूत इदानीं साक्षात्कृतो मया इत्यर्थः।। 18।।
‘दो विद्याएँ जानने योग्य हैं’ इत्यादि उपनिषद्-वाक्यों में जानने योग्य बतलाया हुआ परम अक्षर आप ही हैं। इस विश्व के परम निधान-इस विश्व के परम आधाररूप आप ही हैं। आप अविनाशी-नाशरहित हैं। अभिप्राय यह है कि आप-जैसे रूपवाले, जिन गुणों से युक्त और जिस प्रकार के वैभव से युक्त हैं उसी रूप में सदा रहते हैं। आप शाश्वत धर्म के रक्षक हैं- इस प्रकार के अवतार धारण करके सनातन, नित्य वैदिक धर्म की आप ही रक्षा किया करते हैं। मेरे मत से आप सनातन पुरुष हैं-‘मैं इस महापुरुष को जानता हूँ।’ ‘परात्पर-श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ पुरुष को (प्राप्त होता है)’ इत्यादि श्रुति-वाक्यों में कहे हुए सनातन पुरुष आप ही हैं, इस प्रकार मैंने आपको जाना है। तात्पर्य यह है कि यदुकुलतिलक आपको मैंने ऐसे प्रभावशाली रूप में इस समय प्रत्यक्ष देखा है।। 18।।
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