श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
ग्यारहवाँ अध्याय
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तशो मया ।
त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्मयमपि चाव्ययम् ॥2॥
कमलपत्राक्ष! आपसे भूतों की उत्पत्ति एवं प्रलय होते हैं, यह बात और आपका अविनाशी माहात्म्य भी निस्सन्देह मेरे द्वारा विस्तार पूर्वक सुने गये।। 2।।
तथा सप्तमप्रभृति दशमर्यन्तं त्वद्व्यतिरिक्तानां सर्वेषां भूतानां त्वत्तः परमात्मनो भवाप्ययौ उत्पत्तिप्रलयौ विस्तरशः मया श्रुतौ। हे कमलपत्राक्ष तव अव्ययं नित्यं सर्वचेतनाचेतनवस्तुशेषित्वं ज्ञानबलादिकल्याण गुणगणैः तव एव परतरत्वं सर्वाधारत्वं चिन्तिचनिमिषितादिसर्वप्रवृत्तिषु तव एवं प्रवर्तयितृत्वम्, इत्यादि अपरिमितं माहात्म्यं च श्रुतम् च श्रुतम् हि शब्दो वक्ष्यमाणदिदृक्षाद्योतनार्थः।। 2।।
तथा सातवें अध्याय से लेकर दसवें अध्याय तक मैंने आपके अतिरिक्त समस्त भूतों की उत्पत्ति और प्रलय आप से ही होते हैं, यह बात भी विस्तार से सुनी। तथा हे कमलनयन! मैंने आप से आपका अविनाशी प्रभाव भी सुना-समस्त जड-चेतन का शेषित्व (स्वामित्व), ज्ञान और बल आदि कल्याणमय गुणगणों के नाते सबकी अपेक्षा आपका अतिशय श्रेष्ठतव और सर्वाधारत्व एवं चिन्तन तथा पलक मारने तक की सम्पूर्ण प्रवृत्तियों में आपकी ही प्रवर्तकता है, इत्यादि आपका अपरिमित माहात्म्य भी सुना। यहाँ ‘हि’ शब्द आगे कही जाने वाली देखने की इच्छा का द्योतक है।। 2।।
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥3॥
परमेश्वर! जैसा आप अपने को बतलाते हैं, यह ऐसा ही है, (इसलिये) पुरुषोत्तम! मैं आपके ऐश्वररूप को देखना चाहता हूँ।। 3।।
हे परमेश्वर एवम् एतद् इति अवधृतं यथा आत्थ त्वम् आत्मानं ब्रवीषि। पुरुषोत्तम आश्रितवात्सल्यजलधे तव ऐश्वरं त्वदसाधारणं सर्वस्य प्रशासितृत्वे पालयितृत्वे स्नष्टृत्वे संहर्तृत्वे भर्तृत्वे कल्याणगुणाकरत्वे परतरत्वे सकलेतरविसजातीयत्वे च अवस्थितं रूपं द्रष्टुं साक्षात्कर्तुम् इच्छामि।। 3।।
हे परमेश्वर! आपने अपने को जैसा बतलाया है यह सब ऐसा ही है, यह मैंने निश्चय कर लिया है। पुरुषोत्तम शरणागत वत्सलता के समुद्र! आपका ऐश्वर्ययुक्त असाधारण रूप जो कि सबका शासक, पालक, सृजनकर्ता, संहारकर्ता, पोषक, कल्याणमय गुणों की खान, सबसे परमश्रेष्ठ तथा अन्य सबसे विजातीय (विलक्षण) रूप में स्थिति है, उसको (मैं) देखना-साक्षात् करना चाहता हूँ।। 3।।
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