श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
दूसरा अध्याय
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥13॥
इस (वर्तमान) शरीर में जैसे जीवात्मा को कुमार, युवा और वृद्धावस्था की प्राप्ति होती है, वैसे ही शरीरान्तर की प्राप्ति (भी हो जाती है)। इस बात को समझने वाला धैर्यवान् पुरुष (ऐसा) शोक नहीं करता (कि आत्मा नष्ट होता है)।।13।।
एकस्मिन् देहे वर्तमानस्य देहिनः कौमारावस्थां विहाय यौवनाद्यवस्थाप्राप्तौ आत्मनः स्थिरबुद्धया यथा आत्मा नष्ट इति न शोचति, देहाद् देहान्तर प्राप्तौ अपि तथा एव स्थिर आत्मा इति बुद्धिमान् न शोचति। अत आत्मनां नित्यत्वाद् आत्मानो न शोकस्थानम्।
एक शरीर में वर्तमान जीवात्मा जब कुमार-अवस्था को छोड़कर यौवनादि अवस्थाओं को प्राप्त होता है, तब आत्मा (जैसा पहले था वैसा ही) स्थित है, इस बुद्धि के कारण जैसे बुद्धिमान् पुरुष यह शोक नहीं करता कि ‘आत्मा नष्ट हो गया’ वैसे ही एक शरीर से दूसरे शरीर की प्राप्ति में भी आत्मा (ज्यों-का-त्यों ही) स्थिर है, ऐसा जानने वाला पुरुष शोक नहीं करता। अतएव आत्मा नित्य हैं, इसलिये ये शोक के विषय नहीं हैं।
एतावद् अत्र कर्तव्यम् आत्मनां नित्यानाम् एव अनादिकर्मवश्यतया तत्तत्कर्मोचितदेहसंस्पृष्टानां तैरेव देहैः बन्धनिवृत्तये शास्त्रीयं स्ववर्णोचितं युद्धादिकम् अनभिसंहितफलं कर्म कुर्वताम् अवर्जनीयतया इन्द्रियैः इन्द्रियार्थस्पर्शाः शीतोष्णादिप्रयुक्तसुखदुःखदा भवन्ति, ते तु यावच्छास्त्रीयकर्मसमाप्ति क्षन्तव्या इति।।13।।
जीवात्मा जो कि नित्य होते हुए भी अनादि कर्मों के अधीन होने के कारण उन-उन कर्मों के अनुसार शरीरों से सम्बन्धित हैं, उनका इतना ही कर्तव्य है कि वे बन्धन की निवृत्ति के लिये उन्हीं शरीरों के द्वारा स्ववर्णोचित शास्त्रीय युद्धादि कर्म फलाभिसन्धिरहित होकर करते रहें और इन्द्रिय एवं विषयों के संयोग, जो शीतोष्णादिजनित सुख-दुखः देने वाले हैं, उनको अनिवार्य मानकर जब तक शास्त्रीय कर्म की समाप्ति हो, तब तक सहन करते रहें ।।13।।
इमम् अर्थम् अनन्तरम् एव आह-
यही (उपर्युक्त) अभिप्राय अगले श्लोक में कहते हैं-
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