श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर: ॥35।
मैं सामों में बृहत्साम, छन्दों में गायत्री, मासों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसन्त ऋतु मैं हूँ।। 35।।
साम्नां बृहत्साम अहम्, छन्दसां गायत्री अहम्, ऋतूनां कुसुमाकरः वसन्तः।। 35।।
सामों में ‘बृहत्’ नामक साम मैं हूँ। छन्दों में गायत्री मैं हूँ, (छहों) ऋतुओं में कुसुमाकर-वसन्त मैं हूँ।। 35।।
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥36॥
छल करने वालों का जूआ, तेजस्वियों का तेज, (जीतने वालों की) जीत, (निश्चय करने वालों का) निश्चय और सत्त्वशीलों का सत्त्व मैं हूँ।। 36।।
छलं कुर्वतां छलास्पदेषु अक्षादि लक्षणम् द्यूतम् अहम्। जेतृणां जयः अस्मि, व्यवसायिनां व्यवसायः अस्मि, सत्त्ववतां सत्त्वं महामनस्त्वम् ।। 36।।
छल करने वालों के जो छलके आश्रय हैं उनमें से पासे आदि से खेला जाने वाला जुआ मैं हूँ। जीतने वालों की विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय हूँ और सत्त्वयुक्त पुरुषों का सत्त्व महान् मनस्वीपन हूँ।। 36।।
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