श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्तोत्रसामस्मि जाह्नवी ॥31॥
मैं गमन करने वालों में पवन और शस्त्रधारियों में राम हूँ। मछलियों में मगर और नदियों में श्रीगंगा जी मैं हूँ।। 31।।
पवतां गमनस्वभावानां पवनः अहम्। शस्त्रभृतां रामः अहम्। शस्त्रभृत्त्वम् अत्र विभूतिः, अर्थान्तराभावात् आदित्यादयः च क्षेत्रज्ञा आत्मत्वेन अवस्थितस्य भगवतः शरीरतया धर्मभूता इति शस्त्रभृत्त्वस्थानीयाः।। 31।।
गमन करने के स्वभाव वालों में पवन मैं हूँ; शस्त्रधारियों में राम मैं हूँ। यहाँ ‘शस्त्रधारीपन’ विभूति है, क्योंकि दूसरा कोई अर्थ नहीं हो सकता। आदित्यादि सब जीव उनमें आत्मरूप से स्थित भगवान् के शरीररूप होने से धर्मरूप हैं, इसलिये उनका विभूतियों में गणना करना भी शस्त्रधारीपन की भाँति ही समझना चाहिये।। 31।।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम् ॥32॥
अर्जुन! सर्गों का आदि, मध्य और अन्त मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्म विद्या और विवाद करने वालों में वाद मैं हूँ ।। 32।।
सृज्यन्ते इति सर्गाः, तेषाम् आदिः कारणम्; सर्वदा सृज्यमानानां सर्वेषां प्राणिनां तत्र तत्र स्रष्टारः अहम् एव इत्यर्थः। तथा अन्तः सर्वदा संह्रियमाणानां तत्र तत्र संहर्तारः अपि अहम् एव। तथा च मध्यं पालनं सर्वदा पाल्यमानानां पालयितारश्च अहम् एव इत्यर्थः। श्रेयःसाधन भूतानां विद्यानां मध्ये परमनिः श्रेयससाधनभूता अध्यात्मविद्या अहम् अस्मि। जल्पवितण्डादि कुर्वतां तत्त्वनिर्णयाय प्रवृत्तो वादः यः सः अहम्।। 32।।
जिनका सृजन किया जाय, उनका नाम सर्ग है, उनका आदिकारण मैं हूँ; अर्थात सदा सृजन किये जाने वाले सब प्राणियों के जो भिन्न-भिन्न स्थानों पर पृथक-पृथक स्रष्टा हैं, वे स्रष्टा मैं ही हूँ; इसी प्रकार अन्त हूँ- सदा नष्ट होने वालों के जो पृथक-पृथक संहार करने वाले हैं, वे भी मैं ही हूँ। मध्य का अर्थ यहाँ पालन है, अर्थात् सदा पालन किये जाने वाले सब प्राणियों के जो पृथक-पृथक पालनकर्ता हैं, वे मैं ही हूँ; कल्याणसाधनरूपा विद्याओं में परम कल्याणसाधनरूपा अध्यात्मविद्या मैं हूँ; जल्प-वितण्डा आदि विवाद करने वालों का जो तत्त्व निर्णय के लिये किया जाने वाला वाद है, वह मैं हूँ।। 32।।
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