श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता: ॥8॥
‘मैं सबकी उत्पत्ति का कारण हूँ, सब मुझसे ही प्रवृत्त किये जाते हैं।’ ऐसा जानकर भावसमन्वित ज्ञानी भक्त मुझको भजते हैं।। 8।।
अहं सर्वस्य विचित्रचिदचित्प्रपञ्चस्य प्रभवः उत्पत्तिकारणम्ः, सर्वं मत्त एव प्रवर्तते; इति इदं मम स्वाभाविकं निरङ्कुशैश्वर्य सौशील्यसौन्दर्य वात्सल्यादिकल्याणगुणगणयोगं च मत्वा बुधाः ज्ञानिनो भावसमन्विताः मां सर्वकल्याण गुणान्वितं भजन्ते। भावो मनोवृत्तिविशेषः, मयि स्पृहयालवो मां भजन्त इत्यर्थः।। 8।।
मैं इस समूचे आश्चर्यमय जड चेतन-प्रपञ्च का प्रभव-इसकी उत्पत्ति का कारण हूँ। सब मुझसे ही प्रवर्तित किये जाते हैं; (उन-उनके कर्मानुसार मैं ही उनका संचालन करता हूँ) मेरे इस स्वाभाविक अंकुश रहित (सर्वतन्त्र स्वतन्त्र) ऐश्वर्य को तथा सौशील्य, सौन्दर्य, वात्सल्यादि कल्याणमय गुणगण रूप योग को समझकर भावयुक्त ज्ञानी भक्त मुझ सम्पूर्ण कल्याण गुणसमन्वित परमेश्वर को भजते हैं। मनकी वृत्ति विशष का नाम भाव है। अभिप्राय यह है कि अत्यन्त स्पृहा से मुझमें तन्मय होकर मुझ भजते हैं।। 8।।
कथम्-
कैसे भजते हैं-
मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥9॥
मुझमें चित्त वाले और मेरे ही अधीन प्राणों वाले भक्त, परस्पर (अपने अनुभव को) समझाते हुए और नित्य मेरा कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमण करते हैं।। 9।।
मच्चित्ताः मयि निविष्टमनसः, मद्गतप्राणाः मद्गतजीविताः मया विना आत्मधारणम् अलभमाना इत्यर्थः। स्वैः स्वैः अनुभूतान् मदीयान् गुणान् परस्परं बोधयन्तः, मदीयानि दिव्यानि रमणीयानि कर्माणि च कथयन्तः तुष्यन्ति च रमन्ति च। वक्तारः तद्वचनेन अनन्य प्रयोजनेन तुष्यन्ति, श्रोतारश्च तच्छूवणेन अनवधिकातिशयप्रियेण रमन्ते।। 9।।
मच्चित्त-मन को निरन्तर मुझमें प्रविष्ट किये रहने वाले तथा मद्गतप्राण-मेरे अधीन जीवन वाले अर्थात मेरे बिना जीवन धारण न कर सकने वाले मेरे भक्त अपने-अपने अनुभव में आये हुए मेरे गुणों को परस्पर समझाते हुए और मेरे दिव्य रमणीय कर्मों का वर्णन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमण करते हैं। अभिप्राय यह है कि जिसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी प्रयोजन नहीं, ऐसे उस मेरे गुण-प्रवचन से वक्तागण सन्तुष्ट हो जाते हैं और श्रोतागण उस असीम अतिशय प्रिय गुण-श्रवण से परम आनन्द लाभ करते हैं।। 9।।
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