|
श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम: ।
सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥4॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयश: ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा: ॥5॥
‘बुद्धि’ ज्ञान, असंमोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, भव, अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश, अपयश-प्राणियों के ये नाना भाव (मनोवृत्तियाँ) मुझसे ही होते हैं’ ।। 4-5।।
बुद्धिः मनसो निरूपणसामर्थ्यम्, ज्ञानं चिदचिद्वस्तुविशेषविषयः निश्चयः। असम्मोहः पूर्वगृहीताद् रजतादेः विसजातीये शुक्तिकादिवस्तुनि सजातीयताबुद्धिनिवृत्तिः। क्षमा मनोविकारहेतौ सति अपि अविकृतमन स्त्वम्। सत्यं यथादृष्टविषयं भूतहितरूपं वचनम्, तदनुगुणा मनोवृत्तिः इह अभिप्रेता, मनोवृत्तिप्रकरणात्। दमः बाह्यकरणानाम् अनर्थविषयेभ्यो नियमनम्। शमः अन्तकरणस्य तथा नियमनम्। सुखम् आत्मानुकूलानुभवः। दुःखं प्रतिकुलानुभवः। भवो भवनम्; अनुकूलानुभवहेतुकं मनसो भवनम्। अभाव: प्रतिकूलानुभवहेतुको मनस: अवसाद:। भयम् आगामिनो दुःखस्य हेतुदर्शनजं दुःखम्, तन्निवृत्तिः अभयम्। अहिंसा परदुःखाहेतुत्वम्। समता आत्मनि सुहृत्सु विपक्षेषु च अर्थानर्थयोः सममतित्वम्। तुष्टिः सर्वेषु आत्मसु दृष्टेषु तोषस्वभावत्वम्। तपः शास्त्रीयो भोगसंकोचरूपः कायक्लेशः। दानं स्वकीयभोग्यानां परस्मै प्रति पादनम्। यशो गुणवत्ताप्रदा, अयशः नैगुण्यप्रथा, कीर्त्यकीर्त्यनुगुणमनोवृत्तिविशेषौ तथा उक्तौ, मनोवृत्ति प्रकरणात्। तपोदाने च तथा एवमाद्याः सर्वेषां भूतानां भावाः प्रवृत्तिनिवृत्त् हेतवो मनोवृत्तयो मत एव मत्संकल्पायत्ताः भवन्ति।। 4-5।।
निरूपण करने वाली मानसिक सामर्थ्य का नाम ‘बुद्धि’ है। चेतना चेतन वस्तु के भेद को अनुभव करने वाला निश्चय 'ज्ञान' है। पूर्वपरिचित चाँदी आदि के विजातीय सीप आदि पदार्थो में जो सजातीय भाव है उसकी निवृत्ति का नाम ‘असम्मोह‘ है। मन के विकार का कारण उपस्थित होने पर भी मन का विकृत न होना ‘क्षमा’ है। जैसा देखा है, ठीक वैसा ही प्राणियों के हितसाधक वचन बोलना ‘सत्य’ है; किन्तु यहाँ तदनुकूल मनोवृत्ति का नाम सत्य समझना चाहिये, क्योंकि यह प्रकरण मनोवृत्ति का है। बाह्य इन्द्रियों को अनर्थकारी विषयों से रोकने का नाम ‘दम’ है। उसी तरह अन्तःकरण को वश में रखना ‘शम’ है। अपने अनुकूल अनुभव को सुख कहते हैं, प्रतिकूल अनुभव दुःख है। होने का नाम ‘भव’ है- अनुकूल अनुभव के कारण होने वाले मानसिक भाव (उत्साह)-का नाम ‘भव’ है, प्रतिकूल अनुभव के कारण होने वाले मानस अवसाद (मन की शिथिलता)- का नाम ‘अभाव’ है। आगामी दुःख के कारण को देखने से होने वाले दुःख को ‘भय’ कहते हैं, उसकी निवृत्ति ‘अभय’ है। दूसरे के दुःख में हेतु न बनना अहिंसा है। अपने में, मित्रों में और विपक्षियों में भी हानि-लाभ की अपेक्षा से समबुद्धि रहना ‘समता’ है। सभी दृष्ट आत्माओं में सन्तुष्ट भाव से रहना (किसी की भी उन्नति में ईर्ष्या न करना) ‘तुष्टि’ है। शास्त्रानुकूल भोगों के संकोचरूप कायक्लेश का नाम ‘तप’ है। अपनी भोग्य वस्तुओं को दूसरों के लिये दे देना ‘दान’ है। गुणवत्ता की ख्याति यश है। गुणरहित होने की ख्याति ‘अपयश’ है। पर यहाँ कीर्ति और अपकीर्ति के अनुरूप मनोवृत्तियों को यश और अयश नाम से कहा गया है, क्योंकि यह प्रकरण मनोवृत्ति का है। वैसे ही तप और दान के विषय में भी समझना चाहिये। सब प्राणियों के पूर्वाक्त बुद्धि आदि भाव-प्रवृत्ति-निवृत्ति की कारणरूप मनोवृत्तियाँ मुझसे ही-मेरे संकल्प के आश्रित ही होती हैं।। 4-5।।
सर्वस्य भूतजातस्य सृष्टिस्थित्योः प्रवर्तयितारः च मत्संकल्पायत्तप्रवृत्तय इत्याह-
सम्पूर्ण प्राणिमात्र की सृष्टि और स्थिति करने वाले भी सब-के-सब मेरे संकल्प के आधार पर ही कार्य करने वाले हैं, यह कहते हैं-
|
|