श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
एतद् उक्तं भवति-लोके मनुष्याणां राजा इतरमनुष्य सजातीयः, केनचित् कर्मणा तदाधिपत्यं प्राप्तः, तथा देवानाम् अधिपतिः अपि, तथा ब्रह्माण्डाधिपतिः अपि इतरसंसारिसजातीयः; तस्यापि भावनात्रयान्तर्गतत्त्वात्; ‘यो ब्रह्माणं विदधाति’ [1] इति श्रुतेः च। तथा अन्ये अपि ये केचन अणिमाद्यैश्चर्य प्राप्ताः।
कहने का अभिप्राय यह है कि जगत् में मनुष्यों का राजा, किसी कर्म के कारण मनुष्यों के आधिपत्य को प्राप्त होने पर भी दूसरे मनुष्यों का सजातीय ही होता है। इसी प्रकार देवताओं का अधिपति भी और ब्रह्माण्ड का अधिपति ब्रह्मा भी दूसरे संसारी जीवों का सजातीय ही होता है, क्यों कि वह भी ब्रह्मभावना, कर्मभावना और उभयभावना- इन तीनों भावनाओं के अन्तर्गत आ जाता है। ‘जो ब्रह्मा को रचता है’ इस श्रुति से भी यही सिद्ध होता है। वैसे ही और भी जो कोई अणिमादि सिद्धियों को प्राप्त योगी हैं, वे भी अन्य जीवों के सजातीय ही हैं।
अयं तु लोकमहेश्वरः- कार्य कारणावस्थाद् अचेतनाद् बद्धात् मुक्तात् च चेतनाद् ईशितव्यात् सर्वस्मात् निखिलहेयप्रत्यनीकानविधकाति शयासङ्ख्येयकल्याणैकतानतया नियम नैकस्वस्वभावतया च विसजातीय इति, इतरसजातीयतामोहरहितो यो मां वेत्ति स सर्वेः पापैः प्रमुच्यते इति।। 3।।
परन्तु यह लोकमहेश्वर परमपुरुष कार्यकारण-अवस्था में स्थित अचेतन समुदाय से तथा बद्ध और मुक्त-चेतन-समुदाय से, जो कि इसके शासनाधीन हैं, उन सबसे विजातीय है; क्योंकि समस्त त्याज्य वस्तुओं के विरोधी असीम अतिशय असंख्य कल्याणगुणगण उसमें निरन्तर विराजमान रहते हैं और सबका नियमन करना ही उसका स्वभाव है। अतएव जो दूसरों का सजातीय समझना-रूप मोह से रहित हुआ पुरुष मुझको इस प्रकार (पुरुषोत्तम) जानता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है।। 3।।
एवं स्वस्वभावानुसन्धानेन भक्त्युत्पत्तिविरोधिपापनिरसनं विरोधिनिरसनाद् एव अर्थतो भक्त्युत्पत्तिं च प्रतिपाद्य स्वैश्चर्यस्वकल्याणगुणगण प्रपञ्चनुसन्धानेन भक्तिवृद्धि प्रकारम् आह-
इस प्रकार भगवान् अपने स्वरूप और स्वभाव को समझने से भक्ति की उत्पत्ति के विरोधी पापों का नाश और विरोधियों के नाश से ही यथार्थ भक्ति की उत्पत्ति का प्रतिपादन करके अब अपने ऐश्वर्य और कल्याणगुण गणों के विस्तार के चिन्तन से भक्ति की वृद्धि का प्रकार बतलाते हैं-
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