श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 235

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मढ: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥3॥

मनुष्यों में मोह से रहित हुआ जो भक्त मुझको अजन्मा, अनादि और लोकों का महान् ईश्वर जानता है, वह सब पापों से छूट जाता है।।3।।


न जायते इति अज:, अनेन विकारिद्रव्याद् अचेतनात् तत्संस्रष्टात् संसारिचेतनात् च विसजातीयत्वम् उक्तम्; संसारिचेतनस्य हि कर्म कृताऽचित्संसर्गो जन्म।

जिसका जन्म न हो उसे 'अज' कहते हैं, इससे विकारी अचेतन वस्तु मात्र की अपेक्षा और उस अचेतन (जड) वस्तुसमुदाय से लिप्त सांसारिक चेतनों (जीवों)-की अपेक्षा भी भगवान् की विजातीयता (विलक्षणता) बतलायी गयी है; क्योंकि संसारी चेतन का कर्म जनित अचेतन-संसर्गरूप जन्म होता है।

अनादिम् इति अनेन पदेन आदिमतः अजात् मुक्तात्मनः विसजाती यत्वम् उक्तम्। मुक्तात्मनो हि अजत्वम् आदिमत्, तस्य हेय सम्बन्धस्य पूर्ववृत्तत्त्वात् तदर्हता अस्ति, अतः अनादिम् इति अनेन तदनर्हतया तत्प्रत्यनीकता उच्यते; ‘निरवद्यम्’ [1] इत्यादि श्रुत्वा च।

जो आदियुक्त अज मुक्तात्मा हैं, उनकी अपेक्षा भगवान् की विजातीयता (विलक्षणता) ‘अनादि’ इस पद से बतलायी गयी है; क्योंकि मुक्तात्मा पुरुषों का अजत्व आदि वाला है। उनका त्यागने योग्य जड पदार्थों के साथ पहले से सम्बन्ध था, इसलिये उनके अजत्व को आदिमत् कहना उचित है। अतएव ‘अनादि’ इस पद से यह सूचित करते हैं कि भगवान् वैसे (आदिमत्) अजत्व के योग्य नहीं हैं- उनका अजत्व उससे विलक्षण है, इस कारण ही उनमें उसका विरोधीपन ‘निरवद्यम्’ आदि श्रुति से बतलाया जाता है।

एवं हेयसम्बन्धप्रत्यनीकस्वरूप तया तदनर्हं मां लोकमहेश्वरं लोकेश्वराणाम् अपि ईश्वरं मर्त्येषु असम्मूढो यो वेत्ति; इतरसजातीयतया एकीकृत्य मोहः सम्मोहः तद्रहितोऽसम्मूढः स मद्भक्त्युत्पत्तिविरोधिभिः सर्वैः पापैः प्रमुच्यते।

इस प्रकार मेरा स्वरूप त्याज्य पदार्थ के सम्बन्ध का सर्वथा विरोधी है, इसलिये उनका मुझमें होना असम्भव है, ऐसे मुझ परमेश्वर को, मनुष्यों में जो असम्मूढ (मोह रहित) पुरुष लोक महेश्वर-लोकश्वरों का भी ईश्वर जानता है, वह मेरी भक्ति की उत्पत्ति के विरोधी समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार मेरा स्वरूप त्याज्य पदार्थ के सम्बन्ध का सर्वथा विरोधी है, इसलिये उनका मुझमें होना असम्भव है, ऐसे मुझ परमेश्वर को, मनुष्यों में जो असम्मूढ (मोहरहित) पुरुष लोक महेश्वर-लोकश्वरों का भी ईश्वर जानता है, वह मेरी भक्ति की उत्पत्ति के विरोधी समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। भगवान को अन्य मनुष्यों का सजातीय समझकर उनके-जैसा समझना ‘सम्मोह’ है, जो इससे रहित है वह ‘असम्मूढ’ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्वे0 उ0 6/19

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
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