श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव से मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: ॥30॥
यदि कोई अति दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माना जाने योग्य है, क्योंकि वह ठीक-ठीक निश्चय वाला है।। 30।।
तत्र अपि तत्र तत्र जातिविशेषे जातानां यः समाचार उपादेयः परिहरणीयः च, तस्माद् अतिवृत्तः अपि उक्तप्रकारेण माम् अनन्यभाक् भजनैकप्रयोजनो भजते चेत् साधुः एव सः वैष्णवागे्रसर एव मन्तव्यः, बहुमन्तव्यः पूर्वोक्तैः सम इत्यर्थः। कुत एतत्? सम्यग् व्यवसितो हि सः, यतः अस्य व्यवसायः सुसमीचीनः।
उनमें भी, फिर उन-उन जाति-विशेष में उत्पन्न होने वालों के जो-जो ग्रहण करने योग्य और त्याग करने योग्य आचरण हैं, उनके विपरीत आचरण करने वाला जो कोई भी मनुष्य यदि अनन्य भक्त होकर-केवल मेरे भजन को ही अपना एकमात्र प्रयोजन समझने वाला होकर उपर्युक्त प्रकार से मुझे भजता है, तो उसे साधु-वैष्णवों में आगे बढ़ा हुआ ही मानना चाहिये। अर्थात् पूर्वाक्त महात्माओं के समान ही परम सम्माननीय समझना चाहिये। यह कैसे हो सकता है? इसलिये कि वह ठीक-ठीक निश्चयवाला है-उसका निश्चय परम समीचीन है।
भगवान निखिलजगदेककारणभूतः परब्रह्मनारायणः चराचरपतिः अस्मत्स्वामी मम गुरुः कम सुहृद् मम परं भोग्यम् इति सर्वैः दुष्प्रापः अयं व्यवसायः तेन कृतः, तत्कार्य च अनन्यप्रयोजनं निरन्तरभजनं तस्य अस्ति, अतः साधु एव बहु मन्तव्यः।
‘सम्पूर्ण जगत् के एकमात्र कारणरूप परब्रह्म नारायण चराचर के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण मेरे स्वामी, मेरे गुरु, मेरे सुहृद् और मेरे परम भोग्य (सब भावों से अनुभव करने योग्य) हैं’, इस प्रकार का निश्चय, जो अन्य सब लोगों के लिये दुर्लभ है, उसने कर लिया है तथा इस निश्चय का कार्य जो दूसरे किसी भी प्रयोजन से रहित निरन्तर भजन करना है, वह भी उससे होता है; इसलिये उसे साधु ही मानना चाहिये-बहुत सम्माननीय समझना चाहिये।
अस्मिन् व्यवसाये तत्कार्ये च उक्तप्रकारभजने सम्पन्ने सति तस्य आचारव्यतिक्रमः स्वल्पवैकल्यम् इति न तावता अनादरणीयः, अपि तु बहुमन्तव्य एव इत्यर्थः।। 30।।
अभिप्राय यह है कि ऐसा निश्चय और उसका निश्चय का कार्य उपर्युक्त भजन, इन दोनों के सम्पन्न हो जाने पर उस पुरुष का जो आचारव्यतिक्रम (विपरीत आचरण) रूप दोष है, वह बहुत छोटा है; अतएव इतने से दोष के कारण उसका अनादर नहीं करना चाहिये; बल्कि उसे बहुत सम्मान्य समझना चाहिये।। 30।।
ननु ‘नाविरतो’ दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।’ [1] इत्यादिश्रुतेः आचारव्यतिक्रम उत्तरोत्तरभजनोत्पत्ति प्रवाहं निरुणद्धि इति अत्र आह-
शंका-‘जो पुरुष दुष्ट आचरणों से विरत नहीं है, जो शान्त नहीं है, जो समाहित नहीं है, अशान्त मन वाला है, वह इस आत्मा को ज्ञान के द्वारा नहीं पा सकता।’ इत्यादि श्रुतियों से सिद्ध होता है कि विपरीत आचरण उत्तरोत्तर बढ़ने वाले भजन के प्रवाह को रोकने वाला है- इस पर कहते हैं-
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