श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 227

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै: ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥28॥

इस प्रकार संन्यास योग से युक्त मन वाला होकर तू शुभ-अशुभ फलवाले कर्मबन्धनों से छूट जायगा और (उनसे) छूटा हुआ तू मुझको प्राप्त होगा।। 28।।

एवं सन्नायासाख्ययोग युक्तमना आत्मानं मच्छेषतामन्नियाम्यतैकरसं कर्म च सर्व मदाराधनम् अनुसन्दधानों लौकिकं वैदिकं च कर्म कुर्वन् शुभा शुभफलैः अनन्तैः प्राचीनकर्माख्यैः बन्धनैः मत्प्राप्तिविरोधिभिः सर्वैः मोक्ष्यसे, तैः विमुक्तो माम् एव उपैष्यसि।। 28।।

इस प्रकार संन्यास नामक योग से युक्त मन वाला होकर मेरी दासता और अधीनता ही एकमात्र जिसका स्वभाव है ऐसा अपने को समझकर और समस्त कर्मों को मेरी आराधना समझकर लौकिक और वैदिक कर्मों को करता हुआ तू शुभ-अशुभ फल प्रदान करने वाले, मेरी प्राप्ति के विरोधी अनन्त प्राचीन कर्मरूप सम्पूर्ण बन्धनों से छूट जायगा। उनसे छूटकर मुझको ही प्राप्त होगा।। 28।।

मम इमं परमम् अतिलोकं स्वभावं श्रृणु-

मेरे इस लोकातीत श्रेष्ठ स्वभाव को सुन-

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥29॥

सब प्राणियों में मैं सम हूँ (मेरा सम भाव है), न मेरा (कोई) द्वेषपात्र है और न प्रिय है। परन्तु जो मुझको भक्ति से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।। 29।।

देवतिर्यड् मनुष्यस्थावरात्मना स्थितेषु जातितः च आकारतः स्वभावतो ज्ञानतः च अत्यन्तोत्कृष्टापकृष्टरूपेण वर्तमानेषु सर्वेषु भूतेषु समाश्रयणीयत्वेन समः अहम्; अयं जात्याकारस्वभावज्ञानादिभिः निकृष्ट इति समाश्रयणे न मे द्वेष्यः अस्ति उद्वेजनीयतया न त्याज्यः अस्ति; तथा समाश्रितत्त्वातिरेकेण जात्यादिभिः अत्यन्तोत्कृष्टः अयम् इति तद्युक्ततया समाश्रयणे न कश्चित् प्रियः अस्ति न सङ्ग्राह्यः अस्ति।

जो देव, मनुष्य, तिर्यक् और स्थावरों के रूप में स्थित हो रहे हैं, तथा जाति, आकार, स्वभाव और ज्ञान के तारतम्य से अत्यन्त श्रेष्ठ और निकृष्ट रूप में विद्यमान हैं, ऐसे सभी प्राणियों के प्रति उन्हें समाश्रय देने के लिये मेरा सम भाव है। ‘यह प्राणी जाति, आकार, स्वभाव और ज्ञानादि के कारण निकृष्ट है’ इस भाव से कोई भी अपनी शरण प्रदान करने के लिये मेरा द्वषपात्र नहीं है अर्थात् उद्वेगप्रद समझकर त्याग ने योग्य नहीं है। तथा शरणागति की अधिकता के सिवा, अमुक प्राणी जाति आदि से अत्यन्त श्रेष्ठ है, इस भाव को लेकर अपना समाश्रय देने के लिये मेरा कोई प्रिय नहीं है- इस भाव से मेरा कोई ग्रहण करने योग्य नहीं है।

अपि तु अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मद्धजनेन विना आत्मधारणालाभात् मद्धजनैकप्रयोजना ये मां भजन्ते ते जात्यादिभिः उत्कृष्टाः अपकृष्टा वा मत्समानगुणवद्यथासुखं मयि एव वर्तन्ते; अहम् अपि तेषु मदुत्कृष्टेषु इव वर्ते।। 29।।

बल्कि मुझमें अत्यन्त प्रेम होने के कारण मेरे भजन के बिना जीवन धारण न कर सकने से जो केवल मेरे भजन को ही अपना एकमात्र प्रयोजन समझने वाले भक्त मुझे भजते हैं, वे जाति आदि से चाहे श्रेष्ठ हों या निकृष्ट, वे मेरे समान गुणसम्पन्न होकर मुझमें ही बरतते हैं और मैं भी मेरे श्रेष्ठ भक्तों के साथ जैसा बर्ताव होना चाहिये, उसी प्रकार उनके साथ बरतता हूँ।।29।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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