श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 216

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता: ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥13॥

परन्तु हे पृथापुत्र अर्जुन! दैवी प्रकृति के आश्रित अनन्य मनवाले महात्मा लोग, मुझे भूतों का आदि और अविनाशी जानकर भजते हैं।। 13।।

ये तु स्वकृतैः पुण्यसञ्चयैः मां शरणम् उपगम्य विध्वस्तसमस्तपाप बन्धाः दैवीं प्रकृतिम् आश्रिताः महात्मानः ते, भूतादिम् अव्ययं वाङ्मनसागोरचरनामकर्मस्वरूपं परमकारुणिकतया साधुपरित्राणाय मनुष्यत्वेन अवतीर्ण मां ज्ञात्वा अनन्यमनसः मां भजन्ते; मत्प्रियत्वातिरेकेण मद्भजनेन विना मनसः च आत्मनः च बाह्यकरणानां च धारणम् अलभमानाः, मद्भजनैकप्रयोजनाः भजन्ते।। 13।।

परन्तु जो अपने किये हुए पुण्य संचय के प्रभाव से मेरी शरण में आकर समस्त पाप-बन्धनों को काट डालने वाले मनुष्य दैवी प्रकृति का आश्रय ले चुके हैं, वे अनन्य मनवाले महात्माजन मुझे ऐसा समझकर भजते हैं कि भगवान् भूतों के आदि और अविनाशी हैं; उनके नाम, कर्म और रूप मन-वाणी से अतीत हैं। वे परम दयालुता से साधुओं का परित्राण करने के लिये मनुष्य रूप में अवतीर्ण हुए हैं। अभिप्राय यह है कि मुझमें अत्यन्त प्रेम होने के कारण वे मेरे भजन के बिना मन, आत्मा और बाह्य इन्द्रियों को धारण करने में असमर्थ हो जाते हैं; अतः मेरे भजन को ही अपना एकमात्र प्रयोजन समझकर मेरा भजन करते हैं।। 13।।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥14॥

वे सदा मेरा कीर्तन करते हुए (मेरे लिये) दृढ़वती होकर प्रयत्न करते हुए और भक्ति से मुझे नमस्कार करते हुए नित्य मुझमें लगे रहकर मुझे भजते हैं।। 14।।

अत्यर्थ मत्प्रियत्वेन मत्कीर्तन यतननमस्कारैः विना क्षणाणुमात्रे अपि आत्मधारणम् अलभमानाः मदुण विशेषवाचीनि मन्नामानि स्मृत्वा पुलकितसर्वागाः, हर्षद्वदकण्ठाः श्रीरामनारायणकृष्ण वासुदेवेत्येव मादीनि सततं कीर्तयन्तः तथा एव यतन्तः मत्कर्मसु अर्चनादिकेषु वन्दनस्तवन करणादिकेषु तदुपकारकेषु भवन नन्दन वन करणादिकेषु च दृढ संकल्पाः यतमानाः, भक्तिभाराव नमितमनोबुद्धभिमान पदद्वयकरद्वय शिरोभिः अष्टागैः अचिन्तितपांसु कर्द्दमशर्करादि के धरातले दण्डवत् प्रणिपतन्तः, सततं मां नित्ययुक्ताः नित्ययोगम् आकाङ्क्षमाणा आत्मवन्तो मद्दास्यव्यवसायिनः उपासते।। 14।।

मुझ में अत्यन्त प्रेम होने के कारण जो मेरा कीर्तन, मेरे लिये प्रयत्न और मुझे नमस्कार किये बिना क्षण के अणुमात्र समय तक भी जीवन धारण नहीं कर सकते। मेरे विशेष गुणों के वाचक नामों का स्मरण करके जिन के समस्त अंग पुलकित हो जाते हैं और कण्ठ हर्ष से गद्गद हो उठते हैं, ऐसे भक्त श्रीराम, नारायण, कृष्ण, वासुदेव, इत्यादि नामों का सतत कीर्तन करते हुए तथा यत्न करते हुए-मेरी पूजा-वन्दना एवं स्तुति करना या उन सबके लिये मन्दिर, बगीचा आदि बनाना इत्यादि मेरे कर्मों में दृढ़ संकल्प होकर यत्न करते हुए तथा भक्ति के भार से विनम्र हुए मन, बुद्धि अहंकार, दोनों पैर, दोनों हाथ और सिर- इन आठों अंगों से धूलि, कीचड़ और बालू आदि का विचार किये बिना धरातल दण्ड की भाँति गिरकर मुझे सदा नमस्कार करते हुए और नित्य-युक्त हुए-सदा मुझसे संयोग चाहते हुए और मेरे दास्य भाव को चाहते हुए स्वाधीन मनवाले होकर मेरी उपासना करते हैं।। 14।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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