श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 215

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥11॥

मूर्ख लोग मेरे परम भाव को न जानते हुए भूतों के महान् ईश्वर मुझ मानव शरीरधारी की अवज्ञा करते हैं।। 11।।

एवं मां भूतमहेश्वरं सर्वज्ञं सत्य संकल्प निखिलजगदेककारणं परमकारुणिकतया सर्वसमाश्रयणीयत्वाय मानुषीं तनुम् आश्रितं स्वकृतैः पाप कर्मभिः मूढा अवजानन्ति- प्राकृत मनुष्यसमं मन्यन्ते।

इस प्रकार मैं, जो कि भूतों का महान् ईश्वर, सर्वज्ञ, सत्यसंकल्प वाला समस्त जगत् का एकमात्र कारण तथा परम दयालु स्वभाव से सबको परम आश्रय प्रदान करने के लिये मनुष्य शरीर को धारण किये हुए हूँ उसकी अपने किये हुए पाप कर्मों से मोहित अज्ञानीजन अवज्ञा करते हैं-मुझे साधारण मनुष्य के समान मानते हैं।

भूतमहेश्वरस्य मम अपार कारुण्यौदार्यसौशील्यवात्सल्यादिनिबन्धनं मनुष्यत्वसमाश्रयण लक्षणम् इमं परं भावम् अजानन्तो मनुष्यत्वसमाश्रयणमात्रेण माम् इतरसजातीयं मत्वा तिरस्कुर्वन्ति इत्यर्थः।। 11।।

अभिप्राय यह है कि मुझ भूतमहेश्वर का अपार कारुण्य, औदार्य, सौशील्य और वात्सल्यादि गुणों के कारण मनुष्यत्व धारण रूप जो परम भाव है, उसे न जानने वाले मनुष्य केवल मनुष्यत्व धारण करने मात्र से मुझे दूसरों के समान समझकर मेरा तिरस्कार करते हैं।। 11।।

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस: ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता: ॥12॥

राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेने वाले मनुष्य निःसन्देह व्यर्थ आशावाले, व्यर्थ कर्मों वाले, व्यर्थ ज्ञान वाले और विक्षित्पचित्त होते हैं।।12।।

मम मनुष्यत्वे परमकारुण्यादि परत्वतिरोधानकरीं राक्षसीम् आसुरीं च मोहिनीं प्रकृतिम् आश्रिताः, मोघाशाः मोघवाच्छिता निष्फलवाच्छिताः, मोघकर्माणः मोघारम्भाः, मोघज्ञानाः सर्वेषु मदीयेषु चराचरेषु अर्थेषु मयि च विपरीतज्ञानतया निष्फलज्ञानाः विचेतसः यथा सर्वत्र विगतयाथात्म्य ज्ञानाः, मां सर्वेश्वरम् इतरसमं मत्वा मयि यत् कर्तुम् इच्छन्ति, यद् उद्दिश्य आरम्भान् कुर्वते, तत् सर्वं मोघं भवति इत्यर्थः।। 12।।

मेरा मनुष्य रूप को धारण करना परम दयालुता आदि के गुण के कारण है। इस बात को छिपा देने वाली राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति आ आश्रय लेने वाले पुरुष व्यर्थ आशा वाले-निष्फल इच्छा वाले, व्यर्थ कर्मी-व्यर्थ कर्म करने वाले और व्यर्थ ज्ञानी- मेरे सम्पूर्ण चराचर पदार्थों के विषय में तथा मेरे सम्बन्ध में भी विपरीत ज्ञान रखने वाले होने के कारण व्यर्थ ज्ञान वाले हैं और विक्षिप्त चित्त वाले भी हैं। अभिप्राय यह कि वे सभी विषयों में यथार्थ ज्ञान से रहित हैं, अतः वे मुझ सर्वेश्वर को दूसरों के समान समझकर मेरे विषय में जो कुछ करना चाहते हैं, (उनका) वह सब व्यर्थ होता है।। 12।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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