श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
दूसरा अध्याय
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता: ॥11॥
श्रीभगवान बोले- जिनके लिये शोक नहीं करना चाहिये, उनके लिये तू शोक कर रहा है तथा पण्डितों की-सी बातें भी बना रहा है। (किन्तु) पण्डित लोग मरणशील शरीरों के लिये और अविनाशी आत्माओं के लिये भी शोक नहीं किया करते।।11।।
अशोच्यान् प्रति अनुशोचसि ‘पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।’ (गीता 1/42) इत्यादिकान् देहात्मस्वभावप्रज्ञानिमित्तवादान् च भाषसे। देहात्मस्वभावज्ञानवतां न अत्र किञ्चित् शोक निमित्तम् अस्ति। गतासून् देहान् अगतासून् आत्मनश्च प्रति तयोः स्वभावयाथात्म्यविदो न शोचन्ति। अतः त्वयि विप्रतिषिद्धम् इदम् उपलभ्यते, यद् ‘एतान् हनिष्यामि’ इति अनुशोचनं यच्च देहातिरिक्तात्मज्ञानकृतं धर्माधर्मभाषणम्। अतो देहस्वभावं च न जानासि, तदतिरिक्तम्। आतमानं च नित्यम् तत्प्रप्त्युपायभूतं युद्धादिकं धर्म च। इदं च युद्धं फलाभिसन्धिरहितम्। आत्मयाथात्म्यावाप्त्युपायभूतम्। आत्मा हि न जन्माधीनसद्धावो न मरणाधीनविनाशश्च; तस्य जन्ममरणयोः अभावात्; अतः स न शोकस्थानम्। देहः तु अचेतनः परिणामस्वभावः तस्य उत्पत्तिविनाशयोगः स्वाभाविकः, इति सोऽपि न शोकस्थानम् इति अभिप्रायः ।।11।।
जिनके लिये शोक करना उचित नहीं, उनके लिये तू शोक करता है और साथ ही ‘पिण्ड और जल की क्रिया लुप्त होने के कारण इनके पितृगण नरक में पड़ते हैं’ इत्यादि शरीर और आत्मा के स्वभाव-ज्ञान से सम्बन्धित बातें भी कर रहा है। परंतु शरीर और आत्मा का स्वभाव जानने वालों के लिये यहाँ शोक का तनिक भी कारण नहीं है। उन दोनों के स्वभाव को यथार्थरूप से जानने वाले पुरुष ‘गतासु’-मरणशील शरीरों के लिये और 'अगतासु'-अविनाशी आत्माओं के लिये शोक नहीं करते। परंतु तुझ में ये परस्पर-विरोधी भाव प्राप्त हो रहे हैं, जो कि ‘मैं इनको मारूँगा’ इस प्रकार तू शोक कर रहा है और साथ ही शरीर से अलग आत्मा के ज्ञानजनित धर्माधर्म का वर्णन कर रहा है। इससे (यह सिद्ध होता है कि) तू न तो देह के स्वभाव को जानता है, न उससे भिन्न नित्य आत्मा को और न उसकी प्राप्ति के उपायरूप युद्धादि धर्म को ही। वस्तुतः यही युद्ध यदि फलाभिसन्धि रहित होकर किया जाय तो आत्मा के यथार्थरूप की प्राप्ति का साधन होता है। अभिप्राय यह है कि न तो आत्मा की सत्ता जन्माधीन है और न उसका अभाव ही मरणाधीन है: क्योंकि आत्मा के जन्ममरण हैं ही नहीं; इसलिये वह शोक का विषय नहीं है। तथा शरीर जड है, वह स्वभाव से ही परिणामी (परिवर्तनशील) है और उसका उत्पन्न तथा नष्ट होना भी स्वाभाविक है; अतएव वह भी शोक का विषय नहीं है।।11।।
प्रथमं तावद् आत्मनां स्वभावं श्रृणु-
अब (उन दोनों में से) पहले आत्माओं का स्वभाव सुन-
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