श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
यम् एवं भूतं स्वरूपेणावस्थितम् प्राप्य न निवर्तन्ते तद् मम परमं धाम परमं नियमन-स्थानम्। अचेतनप्रकृतिः एकं नियमनस्थानम्, तत्संसृष्टरूपा जीवप्रकृतिः द्वितीयं नियमनस्थानम् अचित्संसर्गवियुक्तं स्वरूपेणावस्थितं मुक्तस्वरूपं परमं नियमनस्थानम् इत्यर्थः। तत् च अपुनरावृत्तिरूपम्।
इस प्रकार स्वरूप में स्थित जिस अव्यक्त को प्राप्त करके पुरुष वापस नहीं लौटता, वह मेरा परमधाम है-परम नियमन का स्थान है। अभिप्राय यह है कि एक नियमन स्थान जड प्रकृति है, उससे युक्त हुए स्वरूप वाली जीवरूपा प्रकृति दूसरा नियमन स्थान है, और जड के संसर्ग से रहित स्वरूप में स्थित मुक्तस्वरूप परम नियमनस्थान है। वह अपुनरावृत्तिरूप है- आवागमन से रहित है।
अथवा प्रकाशवाची धामशब्दः, प्रकाशः च इह ज्ञानम् अभिप्रेतं प्रकृतिसंस्रष्टात् परिच्छिन्नज्ञानरूपाद् आत्मनः अपरिच्छिन्नज्ञानरूपतया मुक्तस्वरूपं परं धाम।। 21।।
अथवा यहाँ धाम शब्द प्रकाश का नाम है, और प्रकाश का तात्पर्य ज्ञान से है, सो प्रकृति से युक्त परिच्छिन्न ज्ञान वाले आत्मा से अपरिच्छिन्न ज्ञानस्वरूप होने के कारण मुक्तस्वरूप (मुक्तात्मा) परमधाम है।। 21।।
ज्ञानिनः प्राप्यं तु तस्माद् अत्यन्तविभक्तम् इत्याह-
ज्ञानियों के द्वारा प्राप्य (परमपुरुष भगवान) तो उससे अत्यन्त भिन्न है- यह बात कहते हैं-
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥22॥
पृथापुत्र अर्जुन! वह परमपुरुष, जिसके अन्तर्गत सब भूत स्थित हैं और जिससे यह सारा (जगत्) व्याप्त है, सचमुच अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है।। 22।।
‘मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।’[1] ‘मामेभ्यः परमव्ययम्’ [2] इत्यादिना निर्दिष्टस्य यस्यान्तःस्थानि सर्वाणि भूतानि, येन च परेण सर्वम् इदं ततं स परपुरुषोः ‘अनन्यचेताः सततम्’ [3] इति अनन्यया भ्क्त्या लभ्यः।। 22।।
‘मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनंजय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।’ ‘मामेभ्यः परमव्ययम्’ इत्यादि वाक्यों से कहे हुए जिस परम पुरुष के अन्तर्गत समस्त भूतप्राणी स्थित हैं और जिस परमपुरुष से यह समस्त जगत व्याप्त है, वह परमपुरुष ‘अनन्यचेताः सततम्’ इस श्लोक में बतलायी हुई अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है।। 22।।
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