श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥19॥
अर्जुन! वह ही यह अस्वतन्त्र (कर्माधीन) भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर रात्रि के आरम्भ-समय में लय हो जाता है और दिन के आरम्भ-समय में उत्पन्न हो जाता है।।19।।
स एव अयं कर्मवश्यो भूतग्रामः अहरागमे भूत्वा भूत्वा रात्र्यागमे प्रलीयते पुनः अपि अहरागमे प्रभवति। तथा वर्षशतावसानरूपयुगसहस्नान्ते ब्रह्म लोकपर्यन्ता लोकाः ब्रह्मा च, पृथिवी अप्सु प्रलीयते आपः तेजसि लीयन्ते इत्यादिक्रमेण अव्यक्ताक्षरतमःपर्यन्तं मयि एव प्रलीयन्ते।
वही यह कर्मवशवर्ती भूतसमूह दिन के आरम्भ-समय में उत्पन्न हो-होकर रात्रि के आरम्भ-समय में लय हो जाता है; फिर दिन के आरम्भ-समय में उत्पन्न हो जाता है। इसी तरह सौ वर्ष की अवधि रूप युगसहस्र का अन्त होने पर ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी लोक और ब्रह्मा-सब-के-सब लीन हो जाते हैं-‘पृथ्वी जल में लीन हो जाती है, जल तेज में लीन हो जाता है।’ इसी क्रमह से अव्यक्त अक्षर और तमपर्यन्त सब-के-सब मुझमें लीन हो जाते हैं।
एवं मद्व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्य कालव्यवस्थया मत्त उत्पत्तेः मयि प्रलयात् च उत्पत्तिविनाशयोगित्वम् अवर्जनीयम् इति ऐश्वर्यगतिं प्राप्तानां पुनरावृत्ति: अपरिहार्या। मास उपेतनां तु न पुनरावृत्तिप्रसंगः।। 19।।
इस प्रकार मेरे अतिरिक्त सम्पूर्ण जगत् कालव्यवस्था के अनुसार मुझसे उत्पन्न होता है और मुझमें ही लीन होता है। इस कारण उनकी उत्पत्ति विनाशशील होना अनिवार्य है। अतः ऐश्वर्यगति को प्राप्त पुरुषों का पुनरागमन भी अनिवार्य है; किन्तु मुझको प्राप्त भक्तों के पुनर्जन्म का कोई प्रसंग नहीं है।। 19।।
अथ कैवल्यप्राप्तानाम् अपि पुनरावृत्तिः न विद्यते इति आह-
अब यह कहते हैं कि कैवल्य अवस्था को प्राप्त पुरुषों का भी पुनरागमन नहीं होता-
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