श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
दूसरा अध्याय
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश: परन्तप ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥9॥
तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच: ॥10॥
संजय बोले- राजन! निद्राविजयी अर्जुन हृषीकेश भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहकर फिर गोविन्द से (स्पष्ट) यह कहकर कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ चुप हो गया ।।9।।
तब धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओं के मध्य में विषाद करते हुए उस अर्जुन से हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्ण ने परिहास करते हुए-से यह वचन कहे ।।10।।
एवम् अस्थाने समुपस्थितस्त्रेहकारुण्याभ्याम् अप्रकृतिं गतं क्षत्रियाणां युद्धं परमं धर्मम् अपि अधर्म मन्वानं धर्मबुभुत्सया च शरणागतं पार्थम् उद्दिश्य आत्मयाथात्म्यज्ञानेन युद्धस्य फलाभिसन्धिरहितस्य स्वधर्मस्य आत्मयाथाथ्र्यप्राप्त्युपायताज्ञानेन च विना अस्य मोहो न शाम्यति इति मत्वा भगवता परमपुरुषेण अध्यात्मशास्त्रावतरणं कृतम्। तदुक्तम् ‘अस्थाने स्त्रेहकारुण्यधर्माधर्मधियाकुलम्। पार्थ प्रपन्नमुद्दिश्य शास्त्रावतरणं कृतम्।।’ (गीतार्थसंग्रह 5) इति।।
इस प्रकार असमय में उत्पन्न स्नेह और करुणा के कारण जो अपने स्वभाव से विचलित हो गया है, क्षत्रियों के लिये युद्ध परमधर्म होने पर भी जो उसको अधर्म मान रहा है और जो धर्म को समझने की इच्छा से भगवान के शरणागत हो गया है, उस अर्जुन को निमित्त बनाकर परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण ने यह समझकर कि, आत्मस्वरूप के यथार्थ ज्ञान के बिना और फलाभिसन्धिरहित स्वधर्मरूप युद्ध आत्मा के यथार्थ ज्ञान का उपाय है- इस बात को समझे बिना, इसका मोह शान्त नहीं होगा, अध्यात्मशास्त्र का वर्णन आरम्भ किया। कहा भी गया है कि ‘असमय में स्त्रेह, करुणा और धर्माधर्म के भय से व्याकुल होकर शरण में आये हुए अर्जुन के लिये गीताशास्त्र का उपदेश आरम्भ किया गया।’
तत् एवं देहात्मनोः याथात्म्याज्ञाननिमित्तशोकाविष्टं देहातिरिक्तात्मज्ञाननिमित्तं च धर्म भाषमाणं परस्परं विरुद्धगुणान्वितम् उभयोः सेनयोः युद्धाय उद्युक्तयोः मध्ये अकस्मात् निरुद्योगं पार्थम् आलोक्य परमपुरुषः प्रहसन् इव इदम् उवाच। परिहासवाक्यं वदन् इव आत्मपरमात्मयाथात्म्यतत्प्राप्त्युपायभूतकर्मयोगज्ञानयोगभक्तियोगगोचरम् ‘न त्वेवाहं जातु नासम्’ (गीता 2/12) इत्यारभ्य ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।’ (गीता 18/66) इत्येतदन्तम् उवाच इत्यर्थः ।।9-10।।
इस प्रकार जो शरीर और आत्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान न होने के कारण शोक में निमग्न हो रहा है और साथ ही शरीर से आत्मा को अलग समझना ही जिसका हेतु है- ऐसे धर्म का भी वर्णन कर रहा है। उस परस्पर-विरुद्ध गुणों से युक्त अर्जुन को युद्ध के लिये प्रस्तुत दोनों सेनाओं के बीच में अकस्मात निश्चेष्ट देखकर परमपुरुष श्रीकृष्ण हँसते हुए-से इस प्रकार बोले। अर्थात परिहास वचन कहते हुए-से उन्होंने आत्मा और परमात्मा के यथार्थ स्वरूप का तथा उसकी प्राप्ति के उपाय रूप कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियेाग का बोध कराने वाले ‘न त्वेवाहं जातु नासम्’ यहाँ से लेकर ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’ यहाँ तक के प्रसंग को कहा।। 9-10।।
|