श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥12॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥13॥
समस्त द्वारों (इन्द्रियों)-को रोककर, मन का हृदय में निरोध करके, योगसाधारण में स्थित होकर अपने प्राणों को मस्तक में ठहराकर ऊँ इस एक अक्षर- ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मुझे स्मरण करता हुआ जो शरीर छोड़कर जाता है, वह परमगति को प्राप्त होता है।। 12-13।।
सर्वाणि श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि ज्ञानद्वारभूतानि संयम्य स्वव्यापारेभ्यो विनिवर्त्य हृदयकमलनिविष्टे मयि अक्षरे मनो निरुध्य योगाख्यां धारणां आस्थितः मयि एव निश्चलां स्थितिम् आस्थितः।
जिनके द्वारा विषयों का ज्ञान होता है ऐसी समस्त श्रोत्रादि इन्द्रियों को रोककर उनको अपने-अपने व्यापार से निवृत्त करके हृदय कमल में विराजित मुझ अक्षर में मन का निरोध करके तथा योग नामक धारणा में स्थित होकर- मुझमें ही निश्चल स्थिति रखते हुए-
ओम् इति एकाक्षरं ब्रह्म मद्वाचकं व्याहरन् वाच्यं माम् अनुस्मरन् आत्मनः प्राणं मूर्ध्न्याधाय देहं त्यजन् यः प्रयाति स याति परमां गतिं प्रकृतिवियुक्तं मत्समानाकारम् अपुरावृत्तिम् आत्मानं प्राप्नोति इत्यर्थः यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।। अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।’ [1] इति अनन्तरम् एव वक्ष्यते।। 12-13।।
‘ऊँ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्म का- मेरे नाम का उच्चारण करते और मुझ नामी का स्मरण करते हुए जो अपने प्राणों को मस्तक में चढ़ाकर शरीर त्याग कर जाता है वह परमगति को प्राप्त होता है अर्थात् मेरे समान आकार वाले प्रकृति संसर्ग से रहित पुनर्जन्महीन आत्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है। (आत्मतत्त्व को ही अक्षर और परमगति कहते हैं) यह बात इसी अध्याय में ‘यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।। अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।’ इस प्रकार कहेंगे।।12-13।।
एवम् ऐश्वर्यार्थिनः कैवल्यार्थिनश्च स्वप्राप्यानुगुणः भगवदुपासनप्रकार उक्तः। अथ ज्ञानिनो भगवदुपासनप्रकारं प्राप्तिप्रकारं च आह-
इस तरह ऐश्वर्य चाहने वाले और कैवल्य (आत्मसाक्षात्कार) चाहने वाले भक्तों का उनके प्राप्य वस्तु के अनुरूप भगवदुपासना का प्रकार बतलाया गया। अब ज्ञानी की भगवदुपासना और भगवत्प्राप्ति का प्रकार बतलाते हैं-
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