श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥8॥
अर्जुन! अभ्यास एवं योग से युक्त अन्य ओर न जाने वाले चित्त से चिन्तन करता हुआ मनुष्य दिव्य परमपुरुष को प्राप्त होता है।। 8।।
अहरहः अभ्यासयोगाभ्यां युक्ततया नान्यगामिना चेतसा अन्तकाले परमं पुरुषं दिव्यं मां वक्ष्यमाणप्रकारं चिन्तयन् माम् एव याति आदिभरतमृगत्वप्राप्तिवद् ऐश्वर्यविशिष्टतया मत्समानाकारो भवति।
प्रतिदिन के सतत अभ्यास और योग से युक्त होने के कारण जो अन्यत्र न जाने वाला चित्त है, ऐसे चित्त से अन्तकाल में आगे बतलाये हुए स्वरूप वाले मुझ दिव्य परमपुरुष का चिन्तन करने वाला मनुष्य मुझको ही प्राप्त होता है- जैसे आदि भरत को (उसके चिन्तन के अनुरूप) मृगरूप की प्राप्ति हो गयी थी, वैसे ही वह ऐश्वर्य की विशेषता में मेरे समान रूपवाला हो जाता है।
अभ्यासो नित्यनैमित्तिकाविरुद्धेषु सर्वेषु कालेषु मनसा उपास्य संशीलनम्, योगः तु अहरहः योगकाले अनुष्ठीयमानं यथोक्तलक्षणम् उपासनम् ।। 8।।
नित्य-नैमित्तिक कर्मों के अविरुद्ध सब समय में मन के द्वारा उपास्य देव का भलीभाँति चिन्तन करने का नाम ‘अभ्यास’ है और पहले जिसके लक्षण बतलाये गये हैं एवं प्रतिदिन की योगसाधना के समय जिसका अनुष्ठान किया जाता है उस उपासना का नाम ‘योग’ है।। 8।।
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ॥9॥
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥10॥
कवि, पुरातन, अनुशासन करने वाले, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर, सबके धाता, अचिन्त्यस्वरूप और अन्धकार से परे सूर्य के समान वर्णवाले परमेश्वर का जो मनुष्य मरने के समय भक्ति से युक्त योगबल द्वारा अचल किये हुए मन से दोनों भ्रुकुटियों के बीच में प्राणों को अच्छी तरह स्थित करके (वहाँ) स्मरण करता है, वह उस दिव्य परमपुरुष को प्राप्त होता है।। 9-10।।
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