श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 190

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
आठवाँ अध्याय

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम् ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥1॥

अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि: ॥2॥

अर्जुन बोले- पुरुषोत्तम! यह ब्रह्म क्या है,अध्यात्म क्या है और कर्म क्या है? अधिभूत क्या कहा गया है, अधिदैव किसको कहा जाता है? मधुसूदन! इस शरीर में यहाँ अधियज्ञ कैसे और कौन है और मरने के समय संयत आत्मावाले पुरुषों के द्वारा आप कैसे जाने जाते हैं? ।। 1-2।।

जरामरणमोक्षाय भगवन्तम् आश्रित्य यतमानानां ज्ञातव्यतया उक्तं तद् ब्रह्म अध्यात्मं च कर्म च किम् इति वक्तव्यम् ऐश्वर्यार्थिनां ज्ञातव्यम् अधिभूतं अधिदैवं च किं त्रयाणां ज्ञातव्यः अधियज्ञशब्दनिर्दिष्टश्च कः तस्य च अधियज्ञभावः कथं प्रयाणकाले च एभिः त्रिभिः नियतात्मभिः कथं ज्ञेयः असि ।। 1-2।।

जरा-मरण से छूटने के लिये आप भगवान का आश्रय लेकर यत्न करने वाले भक्तों के जानने योग्य बतलाये हुए वे ‘ब्रह्म,’ ‘अध्यात्म’ और ‘कर्म’ क्या हैं? तथा ऐश्वर्य की इच्छा करने वाले भक्तों के जानने योग्य ‘अधिभूत’ और ‘अधिदैव’ क्या है? और इन तीनों के जानने योग्य जो ‘अधियज्ञ’ नाम से कहा गया है वह कौन है? उसका अधियज्ञ भाव कैसे है? एवं इन तीनों नियतात्मा (संयमी) पुरुषों के द्वारा मरण के समय में आप किस प्रकार जाने जाते हैं। यह सब बतलाना चाहिये।। 1-2।।

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्मा परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसञ्ज्ञित: ॥3॥

श्री भगवान बोले- ब्रह्म (आत्मा) परम अक्षर है, स्वभाव (प्रकृति) अध्यात्म कहलाता है, भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाले विसर्ग का नाम कर्म है।। 3।।

तद् ब्रह्म इति निर्दिष्टं परमम् अक्षरं न क्षरति इति अक्षरं क्षेत्रज्ञं समष्टिरूपम्; तथा च श्रुतिः ‘अव्यक्तमक्षरे लीयते अक्षरं तमसि लीयते’ [1]इत्यादिका। परमम् अक्षरं प्रकृतिविनिर्मुक्तात्मस्वरूपम्। स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते स्वभावः प्रकृतिः अनात्मभूतम् आत्मनि सम्बद्धयमानं भूतसूक्ष्मतद्वासनादिकं पञ्चग्निविद्यायां ज्ञातव्यतया उदितम्; तदुभयं प्राप्यतया त्याज्यतया च मुमुक्षिभिः ज्ञातव्यम्।

तत् ब्रह्म शब्द से जिसका निर्देश किया गया है वह ‘ब्रह्म’ परम अक्षर है- जिसका क्षर (नाश) न हो उसका नाम अक्षर है। अतः समष्टिरूप क्षेत्रज्ञ (जीव)-को ही ब्रह्म कहते हैं। ऐसी ही श्रुति भी है-अव्यक्त अक्षर में लय होता है, अक्षर अन्धकार (प्रकृति)-में लय होता है।’ इत्यादि। जिसका स्वरूप प्रकृति से सर्वथा निर्मुक्त (संसर्गरहित) है, उस आत्मा का नाम परम अक्षर है। ‘अध्यात्म’ को स्वभाव कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि प्रकृति का नाम स्वभाव है। वह आत्मा से सम्बद्ध अनात्मवस्तु-सूक्ष्म भूत और उनकी वासनारूपी प्रकृति पञ्चाग्नि-विद्या में जानने योग्य बतलायी गयी है। वे दोनों प्राप्य (प्राप्त करने योग्य) और त्याज्य (त्याग करने योग्य) भेद से मुमुक्षु पुरुषों द्वारा पृथक्-पृथक् जान लेने योग्य हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सुबालोप 0 2

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अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
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