श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
अत्र य इति पुनर्निर्देशात् पूर्वनिर्दिष्टेभ्यः अन्ये अधिकारिणो ज्ञायन्ते।
इस श्लोक में ‘ये’ इस पद का पुनः निर्देश होने के कारण, यह वर्णन पहले बतलाये हुए अधिकारियों से भिन्न दूसरे अधिकारियों का प्रतीत होता है।
साधिभूतं साधिदैवं माम् ऐश्वर्यार्थिनो ये विदुः इत्येतद् अनुवादस्वरूपम् अपि अप्राप्तार्थत्वात् तद्विधायकम् एव।
जो ऐश्वर्य को चाहने वाले भक्त अधिभूत और अधिदैव के सहित मुझको जानते हैं, यह अनुवादस्वरूप वाक्य भी अप्राप्त अर्थ का बोधक होने के कारण वास्तव में उसी का विधायक वचन है।
तथा साधियज्ञम् इत्यपि त्रयाणाम् अधिकारिणाम् अविशेषैण विधीयते, अर्थस्वाभाव्यात् त्रयाणां हि नित्यनैमित्तिक रूपमहायज्ञाद्यनुष्ठानम् अवर्जनीयम्।
इसके सिवा, ‘साधियज्ञ’ शब्द तीनों अधिकारियों के लिये समान भाव से कहा गया है। क्योंकि स्वभावतः तीनों को ही यज्ञ से प्रयोजन है-तीनों के लिये ही नित्य-नैमित्तिकरूप महायज्ञादि का अनुष्ठान करना अनिवार्य है।
ते च प्रयाणकालेऽपि स्वाप्राप्यानु गुणं मां विदुः।
वे प्रयाणकाल में भी मुझे अपने प्राप्य के अनुरूप गुणों से युक्त समझते हैं।
‘ते च’ इति चकारात् पूर्वे जरामरणमोक्षाय यतमानाश्च प्रयाणकालेऽपि विदुः, इति समुच्चीयन्ते। अनेन ज्ञानिनः अपि अर्थस्वाभाव्यात् साधियज्ञं मां विदुः प्रयाणकाले अपि स्वप्राप्यानुगुणं मां विदुः इति उक्तं भवति।। 30।।
यहाँ ‘ते च’ इस प्रकार चकार के प्रयोग से पहले बतलाये हुए जरा-मरण से छूटने के लिये प्रयत्न करने वाले भक्तों का भी ‘प्रयाणकाल में भी जानते हैं’ इस वाक्य में समुच्चय कर लिया गया है। तथा इसी कथन से ज्ञानियों के विषय में भी यह कहना हो जाता है कि स्वभावतः यज्ञ से प्रयोजन होने के कारण वे भी मुझे अधियज्ञ के सहित जानते हैं, और मरणकाल में भी वे मुझको अपने प्राप्य के अनुरूप गुणों वाला जानते हैं।। 30।।
इति श्रीमद्धगवद्रानुजाचार्य विरचते श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये सप्तमोऽध्यायः।।7।।
इस प्रकार श्रीमान भगवान रामानुजाचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीताभाष्य के हिन्दी-भाषानुवाद का सातवाँ अध्याय समाप्त हुआ।। 7।।
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