श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥18॥
ये सारे ही उदार हैं; परन्तु मेरा मत है कि ज्ञानी तो मेरा आत्मा ही है; क्योंकि वह युक्तात्मा मुझ सर्वोत्तम प्राप्य वस्तु में ही स्थित है।। 18।।
सर्वे एव एते माम् एव उपासते इति उदाराः वदान्याः ये मत्तो यत् किञ्चिद् अपि गृह्णन्ति, ते हि मम सर्वस्वदायिनः। ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतं तदायत्तात्मधारणः अहम् इति मन्ये।
ये सभी मेरी ही उपासना करते हैं, इसलिये उदार हैं। जो मुझसे कुछ लेते हैं और मुझे सर्वस्व अर्पण कर देते हैं वे सभी दानी हैं। ज्ञानी को तो मैं अपना आत्मा ही समझता हूँ। मैं अपनी स्थिति उसी के आधार पर मानता हूँ।
कस्माद् एवं यस्माद् अयं मया विना आत्मधारणासम्भावनया माम् एव अनुत्तमं प्राप्यम् आस्थितः, अतः तेन विना मम अपि आत्मधारणं न सम्भवति, ततो मम अपि आत्मा हि सः।। 18।।
यह कैसे? सो कहते हैं- जिससे कि यह मेरे बिना जीवन धारण करने में असमर्थ होने के कारण केवल मात्र मुझ सर्वोत्तम प्राप्य वस्तु में स्थित रहता है; इसलिये मैं भी उसके बिना जीवन धारण करने में असमर्थ हूँ, इसलिये मेरा भी वह आत्मा ही है।। 18।।
न अल्पसङ्ख्यासङ्ख्यातानां पुण्यजन्मनां फलम् इदं यन्मच्छेषतैक रसात्मयाथात्म्यज्ञानपूर्वकं मत्प्रपदनम् अपि तु-
यह जो कि मुझे अपना स्वामी समझकर मेरे अधीनस्थ एकरस आत्मा के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानते हुए मेरी शरण हो जाना है- यह अल्पसंख्या में गिने जाने वाले पुण्यमय जन्मों का फल नहीं है; किन्तु-
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ॥19॥
बहुत-से जन्मों के अन्त में ज्ञानवान् ‘यह सब वासुदेव ही है’ , इस भाव से मेरी शरण ग्रहण करता है। वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।। 19।।
बहूनां जन्मनां पुण्यजन्मनाम् अन्ते अवसाने वासुदेवशेषतैकरसः अहं तदायत्तस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिः च, स च असङ्ख्येयैः कल्याणगुणैः परतरः इति ज्ञानवान् भूत्वा वासुदेव एव मम परमप्राप्यं प्रापकं च अन्यदपि यन्मनोरथवर्ति स एव मम तत् सर्वम् इति मां यो प्रपद्यते माम् उपास्ते स महात्मा महामनाः सुदुर्लभः दुर्लभतरः लोके।
बहुत-से पुण्यमय जन्मों के अन्त में अन्तिम जन्म में मनुष्य ‘भगवान् वासुदेव की अधीनता ही जिसका एक मात्र स्वभाव है वह आत्मा मैं हूँ और उस वासुदेव के आधार पर ही मेरी स्वरूपस्थिति तथा प्रवृत्ति है, वह वासुदेव असंख्य कल्याणमय गुणों के कारण परम श्रेष्ठ है’ ऐसे ज्ञान से सम्पन्न होकर इस प्रकार मेरी शरण ग्रहण कर लेता है कि वासुदेव ही मेरा परम प्राप्य और प्रापक है, तथा और भी जो कुछ मेरा मनोरथ है, वह सब वासुदेव ही है। जो इस प्रकार मेरी उपासना करता है, ऐसा महात्मा यानी महामना भक्त संसार में सुदुर्लभ परम दुर्लभ है।
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