श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
दूसरा अध्याय
एवम उपविष्टे पार्थे कुत: अयम् अस्थाने समुत्थिम: शोक इति आक्षिप्य तम् इमं विषमस्थं शोकम अविद्व-त्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्ति करम् अतिक्षुद्रं हृदयदौर्बल्यकृतं परित्यज्य युद्धाय उत्तिष्ठ इति श्रीभगवान उचाव॥1-3 ॥
अर्जुन के इस प्रकार रथ पर बैठ जाने पर 'यह बिना अवसर का शोक तुझ में कहाँ से आ गया इस प्रकार आक्षेप करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने यह कहा कि अज्ञानियों के द्वारा सेवित, परलोक विरोधी, आकीर्तिकारक, हृदय की दुर्बलता से उत्पन्न अत्यन्त क्षुद्र इस असामायिक शोक को छोड़कर तू युद्ध के लिए खड़ा हो जा।।
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोण च मधुसूदन ।
इषुभि: प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥4॥
गुरुनहत्वा हि महानुभावान् ।
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव ।
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥5॥
अर्जुन कहने लगे- मधुसूदन! अरिसूदन! पूजा के योग्य इन पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण का, मैं युद्ध में बाणों के द्वारा किस प्रकार सामना कर सकूँगा? ।।4।।
(मैं तो समझता हूँ कि) इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर इस लोक में भीख का अन्न खाना ही अच्छा है; क्योंकि इन अर्थकामी गुरुजनों को मारकर यहाँ उनके रुधिर से सने हुए भोगों को ही तो भोगना है।।5।।
पुनरपि पार्थः स्त्रेहकारुण्यधर्माधर्मभयाकुलो भगवदुक्तं हिततमम् अजानन् इदम् उवाच। भीष्मद्रोणादिकान् बहुमन्तव्यान् गुरुन् कथम् अहं हनिष्यामि कथन्तरां भोगेष्वतिमात्रसक्तान् तान् हत्वा तैः भुज्यमानान् तान् एव भोगान् तद्रुधिरेण उपसिच्य तेषु आसनेषु उपविश्य भुञ्जीय।।4-5।।
स्नेह, करुणा और धर्माधर्म के भय से व्याकुल अर्जुन भगवान् के द्वारा कथित अत्यन्त हितकर उपदेश को न समझकर पुनः इस प्रकार कहने लगा-परम सम्मानास्पद भीष्म-द्रोण आदि गुरुजनों को मैं कैसे तो मारूँगा और फिर कैसे मैं उन भोगों में अत्यन्त आसक्त गुरुजनों को मारकर उनके द्वारा भोगे जाने वाले उन्हीं भोगों को उन्हीं के रक्त से सींचकर उन्हीं आसनों पर बैठकर भोगूँगा? ।। 4-5।।
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